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________________ कर्मों का शरीर पर प्रभाव कर्म का विपाक किसी माध्यम के द्वारा होता है। शरीर और मन के सुखद तथा दु:खद संवेदन भी कर्म विपाक का माध्यम बनते हैं। कर्मों की अभिव्यक्ति का मुख्य स्थान ही शरीर और मन है। शारीरिक रोग अर्थात् व्याधि को परिभाषित करते हुए सुश्रुत संहिता में कहा गया है-"तद् दुःखसंयोगी व्याधय उच्यन्ते । अथर्ववेद में यह स्पष्ट प्राप्त होता है कि क्रोध, चिन्ता, भय आदि मानसिक विकारों से शरीर में 40 प्रकार के विष उत्पन्न होते हैं ।12 विष अर्थात् शरीर के लिए अनुपयोगी, घातक विजातीय पदार्थ। इन विजातीय पदार्थों का मुकाबला करने के लिए रोग प्रतिरोधात्मक क्षमता का होना आवश्यक है। कर्मशास्त्रीय भाषा में असात वेदनीय कर्म का उदय होता है तब वह कर्म शरीर की अशुद्ध ऊर्जा भावतन्त्र को अशुद्ध बना देती है। इससे इम्यूनिटी सिस्टम की रोगप्रतिरोधक क्षमता कमजोर हो जाती है तथा शरीर भी रोगों को ग्रहण करने के लिए तैयार हो जाता है। रोगों का कर्म पर प्रभाव जिस प्रकार कर्म शरीर और मन को प्रभावित कर रोगोत्पत्ति में हेतु बनता है उसी प्रकार रोग भी कर्मों के उदय तथा बन्ध को प्रभावित कर देते हैं। प्रज्ञापना सूत्र की टीका में 13 आचार्य मलय गिरि ने प्रसंगवश उल्लेख किया है कि पित्त कुपित हो तो क्रोधकषाय का उदय होता है। क्रोधकषाय मोहनीय कर्म की एक प्रकृति है। पित्त का कोप कलहकारी वृत्ति को जन्म देता है। वात का असन्तुलन वायुविकार जनित उदासी, कुण्ठा आदि की स्थिति पैदा करता है। इस सन्दर्भ में आचार्य महाप्रज्ञ का मन्तव्य भी उल्लेखनीय है। शरीर की ऊर्जा यदि ठीक है तो सात वेदनीय का सवंदेन होगा। यदि शरीर की ऊर्जा अस्त व्यस्त है तो असात वेदनीय का संवेदन होगा, दुःख का संवेदन होगा। तैजस शरीर से स्थूल शरीर को ऊर्जा की शक्ति प्राप्त होती है। मन की भी यही स्थिति है। मन भी ऊर्जा से संचालित है। हमारी जैविक ऊर्जा ठीक काम कर रही है, तैजस्शरीर की ऊर्जा समचीन है तो मन प्रसन्न रहेगा, आनन्दित होगा, यदि ऊर्जा समचीन नहीं है तो मन अशान्त हो जाएगा, दुःखी बन जाएगा, बुरे विचार आने लगेंगे। आचार्य महाप्रज्ञ ने आधुनिक व्याख्या के साथ रोगों का कर्म पर पड़ने वाले प्रभावों को समझाया है। स्पष्ट है कि कर्म का विपाक तथा बन्ध एकांगी नहीं होता। इनके लिए द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि निमित्त बनते है। रोग भी बन सकते हैं । व्यक्ति नाक भौं सिकोड़ता है, इससे घृणा करता है। घृणा से मोहनीय कर्म के साथ ज्ञानावरणीय, वेदनीय कर्म का भी बंध होगा। ईर्ष्या करेगा तो मोहनीय कर्म का ज्यादा बंध होगा। रोग और कर्म का संबंध आचारशास्त्र से जुड़ा है। हमारा आचार, व्यवहार रोग में निमित्त तथा कर्म उपादन कारक बनते हैं। एक श्रृंखला बनती है- रोग, असात वेदनीय कर्म का बंध तथा असात वेदनीय कर्म के विपाक की स्थितियाँ । 20 - तुलसी प्रज्ञा अंक 128 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524623
Book TitleTulsi Prajna 2005 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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