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________________ "उपमा पर आधारित चैतन्य की व्याख्या अमान्य प्रतीत होती है। चार्वाक का विश्व एवं परमसत्ता सम्बन्धी विचार एकांगी है। परम्परागत भारतीय चिन्तन में परमसत्ता की महत्ता के साथ-साथ अन्य देवों की महत्ता को भी माना गया है। यह बहुदेववादी विचारधारा का ही प्रवाह है जिसमें देवों को महत्त्वपूर्ण माना गया था। अनिश्वरवादी भारतीय दर्शनों- जैन, बौद्ध, सांख्य मीमांसा में भी परमसत्ता की महत्ता का पूर्णतः खण्डन नहीं हुआ। जहां जैन दर्शन में दस इन्द्रादि देवो को माना गया है, वही इनका परलोकवादी सिद्धान्त परम्परागत चिन्तन का ही पोषक है। यह माना जा सकता है कि प्रबल प्रमाणों से पुष्ट जैन दर्शन में अनेकान्त का अजर-अमर सिद्धान्त समन्वयवादी संस्कृति का पोषण हैं, जो व्यर्थ वितंडावाद को खत्म कर सत्य को नजदीक से देखने की कोशिश करता है परन्तु देव सत्ता की महत्ता, मोक्ष एवं परलोक की अवधारणा से लगता है कि आदिकालीन मानवीय चिन्तन अब भी बौद्धिक मानव के चिन्तन को प्रभावित कर रहा है। ज्ञानशास्त्र एवं तर्कशास्त्र से परिपूर्ण न्यायदर्शन में परमसत्ता को स्वीकारा गया है। महर्षि गौतम ने अपने ग्रन्थ "न्यायसूत्र" में इसका उल्लेख किया है। न्याय और वैशेषिक दर्शन में परमसत्ता को नित्य, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, धर्म व्यवस्थापक, कर्मफलदाता तथा सृष्टि का रचयिता माना है, वही विश्वकर्मा है।''16 न्यायदर्शन के मोक्ष विचार में चेतनाहीन मुक्त आत्मा मानकर कुछ भ्रम उत्पन्न कर दिया परन्तु परमसत्ता की अवहेलना नहीं कर सका, इसी प्रकार वैशेषिक के सामान्य की अवधारणा परमसत्ता की स्वीकृति सी प्रतीत होती है, क्योंकि जो शाश्वत है, नित्य है, विनाशी है वो परमसत्ता के अलावा और क्या हो सकता है। ___ सांख्यदर्शन में कपिलमुनि प्रवर्तित सांख्य को (निरीश्वर) सांख्य और महर्षि पांतजलि प्रवर्तित सांख्य को सईश्वर सांख्य माना गया है। इनके अनुसार "यः सर्वज्ञः सः सर्ववित् सहि सर्ववित् सर्वस्य कर्ता" यहां परमसत्ता की बजाय मुक्त पुरुष की प्रशंसा है ऐसा प्रतीत होता है कि यह पुरुष मानव के आदिकालीन चिन्तन का ही अंश है जिसे थोड़े बहुत फेर बदल के बाद स्वीकारा गया है। महर्षि पांतजलि ने योगदर्शन में परमसत्ता को "क्लेशकर्मविपाकाशैः यः अपरामृष्टः पुरुष विशेष ईश्वर" यहां आदिकालीन परमसत्ता के स्वरूप में विशेष ज्योर्तिमय प्रकाश दृष्टिगोचर होने लगा। इसी प्रकार मीमांसा दर्शन में भी परमसत्ता को स्वीकार किया गया परन्तु वास्तव में डॉ. राधाकृष्णन् के विचारानुसार "जगत् के दार्शनिक विवरण के रूप में यह मूलतः अपूर्ण है।' 18 तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2005 - - 49 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524622
Book TitleTulsi Prajna 2005 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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