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________________ ' सभी अज्ञात और सभी जलमय था । तुच्छ अज्ञान के द्वारा वह सर्वव्यापी आच्छन्न था । तपस्या के प्रभाव से वह एक तत्त्व उत्पन्न हुआ" इसके बाद "परमसत्ता में सृष्टि की इच्छा उत्पन्न हुई।'” कहा भी गया है, "कामस्तदग्रे समवर्तत । ० उपनिषद् में भी परमात्मा की सिसृक्षा की ओर संकेत करते हुए कहा गया है, - " सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेय इति । ' ' 1 (1) कामस्तदग्रे सभवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासींत् । नासदीय सूक्त के सप्तम मन्त्र में परमसत्ता की तरह संकेत करते हुए कहा है कि यह नाना सृष्टियां कहां से उत्पन्न हुई, किसने सृष्टियां उत्पन्न की, किसने नहीं की - यह सब वही जाने जो इनके स्वामी परमधाम में निवास करते हैं, अन्य कोई नहीं है। इस वैदिक एवं उपनिषद् परम्परा में वर्णित परमसत्ता का मूलस्वरूप आदिकालीन मानव की परमसत्ता के अनुरूप ही था । उपनिषद् परम्परा में मानव का बौद्धिक विकास अपने पूरे यौवन पर था, जहां ऋग्वेद में वर्णित परमसत्ता के समस्त स्वरूप पर वृहत् एवं गहन दृष्टि से चिन्तन एवं मनन हुआ । केनोपनिषद् में परमसत्ता को मन बुद्धि वाणी का प्रकाशक कहा गया है । तैत्तरीय उपनिषद् एवं छान्दोग्य उपनिषद् आदि में परमसत्ता को विश्व मूल कारक माना गया है। I यतोवाइमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति । " यत् प्रयत्यमभी संविशति तत् ब्रह्ममौति ॥ 2 इस परमसत्ता को ही सृष्टि का उत्पन्नकर्त्ता, पालनकर्त्ता तथा संहारकर्त्ता माना गया है, उससे ही समस्त चराचर जगत् की उत्पत्ति हुई और अन्ततोगत्वा उसी में सबका लय होता है। गीता को भारतीय दर्शन ही नहीं, विश्व के दार्शनिक जगत् की प्रतिकृति माना जाता है। यहां भी परमसत्ता का उल्लेख जगत के कर्त्ता के रूप में हुआ, जो स्वयं स्वयंभू है । परमसत्ता के लिए कहा भी गया है "उपद्रष्टाऽनुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः परमसत्ता को साक्षी भरण पोषण कर्त्ता एवं भोक्ता माना गया है। 13 गीता में सर्वेश्वरवाद एवं ईश्वरवाद में कोई विरोध नहीं है। सर्वेश्वरवाद को मानते हुए भी इस जगत् से परे की सत्ता को स्वीकारा गया जो उसमें अन्तर्व्याप्त भी है। "ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातन 14 भारतीय दर्शन का विकास आलोचनात्मक पद्धति से हुआ चार्वक एक ऐसा दर्शन है जो पूर्णत: भौतिकवादी है तुलसी प्रज्ञा अंक 127 48 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524622
Book TitleTulsi Prajna 2005 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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