SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 55
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इस दर्शन में परमसत्ता की महत्ता को स्वीकारा गया है। मीमांसकों का मानना है कि तर्क एवं अनुमान के आधार पर ईश्वर या परमसत्ता को प्रभावित नहीं कर सकते, क्योंकि इसका कालान्तर में खण्डन किया जा सकता है। वेद सिद्ध परमसत्ता का खण्डन करना मीमांसा का कोई उद्देश्य नहीं था । शंकर ने अपने दर्शन में परमसत्ता की व्याख्या निषेधात्मक रूप से की है। उपनिषदों में वर्णित शक्तियों का उल्लेख कर परमसत्ता के निर्गुण स्वरूप की व्याख्या करते हैं । " इदं तु पारमार्थिक कूटस्थं नित्यं व्योमवत् सर्वव्यापी सर्वक्रियारहितं नित्यं तृप्तं निरवयवं स्वयं ज्योति स्वभावम् " शंकर का ब्रह्म स्वयं प्रकाश, निष्क्रिय निर्गुण निरवयव तथा अनंत है। आदिकालीन मानवीय परमसत्ता की अवधारणा शंकर के दर्शन में भी निर्बाध गति से जारी है। यह सत्ता रामानुज के विशिष्टाद्वैतवाद भी दृष्टिगोचर होती है । चित् जीवात्मा और अचित जड़ प्रकृति रामानुज के दर्शन में चिदचिद्विष्टि कहलाई और सगुण ईश्वर से अपृथक् रूप से संयुक्त मानी गई है। वही समकालीन भारतीय चिन्तक रामकृष्णन् परहंस, विवेकानन्द, गांधी, अरविंद, टेगोर, के.सी. भट्टाचार्य एवं राधाकृष्ण सगुण एवं निर्गुण का भेद भूलाकर परमसत्ता की महत्ता को स्वीकार किया है। भारतीय दर्शन की भांति यूनान में भी दर्शन की एक सबल परम्परा का उत्थान हुआ। दोनों दर्शन के मूल में मानव का आदिमकालीन परमसत्ता का चिन्तन ही गतिशील था। जहां भारतीय दर्शन में विश्वव्यापी भौतिक कष्टों को देखकर परम तत्त्व का चिन्तन किया गया, वहीं पाश्चात्य दर्शन के उत्थान में जिज्ञासा की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही, जिसके नैपथ्य में आदि अवस्था का "परम तत्व" मानव मन को उद्वेलित कर रहा था । भारतीय दर्शन में उस आदिम सत्ता का स्वरूप विकसित हुआ । ऋग्वेद से लेकर समकालीन भारतीय दार्शनिकों की दृष्टि उस पर ही केन्द्रित रही । इसी प्रकार पाश्चात्य दर्शन में भी ग्रीक के दर्शन और समस्त यूरोपियन दर्शन में उस (Ultionate reality) परम तत्व की खोज में लगा रहा।" दोनों दर्शनों में उद्देश्य और पद्धतियों में महत्त्वपूर्ण अन्तर देखा जा सकता है । सम्पूर्ण भारतीय में मोक्ष की अवधारणा और परमतत्व के साक्षात्कार की उच्च आकांक्षा दृष्टिगत होती है, वही पाश्चात्य जगत दर्शन केवल ज्ञान पीपासा को तृप्त करने वाला साहित्य कहलाया । पाश्चात्य मानव के इस मानसिक व्यायाम को आखिर दर्शन की संज्ञा दी गई और दर्शन उसे कहते हैं जो अनवरत तथा प्रयत्नशील चिन्तन के आधार पर विश्व की समस्त अनुभूतियों की बौद्धिक व्याख्या तथा उनके मूल्यांकन का प्रयास करता हो। इस पाश्चात्य दर्शन का मूल उद्देश्य भी भारतीय चिन्तनानुसार वास्वविक सत्य की खोज ही रहा है और होगा भी क्यों नहीं, दोनों के मूल तुलसी प्रज्ञा अंक 127 50 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524622
Book TitleTulsi Prajna 2005 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy