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________________ 1 सत्त्वगुण से ज्ञानादि का प्रकाश, रजोगुण से विभिन्न कार्यों में प्रवृत्ति तथा तमोगुण से कार्य करने में आलस्य होता है, उत्साह नहीं होता। इनमें प्रत्येक गुण दूसरे दो गुणों को दबाकर अपना कार्य करते हैं, इसलिए परस्पर अभिभववृत्ति वाले हैं । प्रत्येक गुण अपने कार्य के लिए दूसरों का सहारा लेकर प्रवृत्त होते हैं, अत: उनमें अन्योन्याश्रयवृत्ति है । ये तीनों गुण संसार के सभी कार्यों के जनक हैं। ये गुण स्त्री-पुरुष के समान आपस में मिलकर कार्य करने वाले हैं, इसीलिए इन्हें अन्योन्यमिथुन वृत्ति कहा गया है 'अन्योन्याभिभवाश्रयजननमिथुनवृत्तयश्च गुणा: '8 संसार की प्रत्येक वस्तु त्रिगुणात्मक है। सत्त्व, रज एवं तम । ये तीनों गुण पृथक्पृथक् नहीं रहते, हमेशा एक साथ रहते हैं - सत्त्वं न केवलं क्वापि न रजो तमस्तथा । मिलिताश्च तदा सर्वे तेनान्योन्याश्रया स्मृताः ॥ इन गुणों की यह विशेषता है कि जब एक गुण बलवान होता है तब अन्य दो गुण दुर्बल हो जाते हैं किन्तु रहते साथ में ही हैं, अतः संसार की प्रत्येक वस्तु त्रिगुणात्मक है एवं प्रतिक्षण इनमें परिणमन भी होता है, इसीलिए एक ही स्त्री सत्त्वगुण के कारण पति को सुख देने वाली, अपनी सौतन को दुःख देने वाली तथा अन्य कामी पुरुषों में मोह को उत्पन्न करने वाली बन जाती है । सत्त्वगुण लघु एवं प्रकाशक है, क्योंकि सत्त्वगुण के आधिक्य से शरीर में हल्कापन एवं इन्द्रियों को अपने-अपने विषय का शीघ्र ज्ञान हो जाता है Jain Education International लघुप्रकाशकं सत्त्वं निर्मलं विशदं तथा । यदाङ्गानि लघून्येव नेत्रादीनीन्द्रियाणि ॥ निर्मलं च तथा चेतो गृह्णाति विषयान् स्वकान् । इसका धर्म सुख है। सांख्याचार्यों ने लघुत्व एवं प्रकाशत्व को सत्त्वगुण का लक्षण बताया है। सत्त्वं लघुप्रकाशकम् । रजोगुण से कार्य करने में प्रवृत्ति होती है, अतः उपष्टम्भक (प्रवर्तक) एवं चंचलता को रजोगुण का लक्षण माना गया है। उपष्टम्भकं चलं च रजः । ° तमोगुण से शरीर एवं इन्द्रियों में भारीपन और ज्ञान में रुकावट आ जाती है, अत: सांख्यदर्शन में तमोगुण को गुरु एवं आवरक ( प्रतिबन्धक) माना गया है. गुरुवरणकमेव तमः । " यद्यपि ये तीनों गुण एक-दूसरे के विरोधी हैं, फिर भी जिस तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2005 For Private & Personal Use Only 35 www.jainelibrary.org
SR No.524622
Book TitleTulsi Prajna 2005 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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