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________________ ज्ञान में, ज्ञान के उपकरण शास्त्र आदि में तथा ज्ञानवंत पुरुष में भक्ति के साथ नित्य जो अनुकूल आचरण किया जाता है वह ज्ञान विनय है। पंचविहं चारित्तं अहियारा जे य वणिया तस्स। जं तेसिं बहुमाणं वियाण चारित्तविणओ सो ॥ 323॥ परमागम में पांच प्रकार का चारित्र और उसके जो अधिकारी या धारण करने वाले वर्णन किये गये हैं, उनके आदर-सत्कार को चारित्र विनय कहते हैं। बालो यं बुड्ढो यं संकप्पं वज्जिऊण तवसीणं। जं पणिवायं कीरइ तवविणयं त वियाणीहि ॥ 324 (3) यह बालक है, यह वृद्ध है, इस प्रकार का संकल्प छोड़कर तपस्वी जनों का जो प्रतिपात अर्थात् आदरपूर्वक वंदन किया जाता है, उसे तप विनय कहते हैं। उवयारिओ वि विणओ मण-वचि-काएण होइ तिवियप्पो। सो पुण दुविहो भणिओ पच्चक्ख परोक्खभेएण ॥ 325 (4) औपचारिक विनय भी मन, वचन, काय के भेद से तीन प्रकार का होता है और वह तीनों प्रकार का विनय प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से दो प्रकार का कहा गया है। प्रत्यक्ष विनय का वर्णन निम्न है मानसिक विनय - जो मन खोटे परिणामों को हटाकर शुभयोग में स्थापन करता है उसे मानसिक विनय कहा है। वाचिक विनय - हित, मित, पूज्य, शास्त्रानुकूल तथा हृदय पर चोट नहीं करने वाले कोमल वचन कहना और संयमी जनों में नम्र भाषण करना वाचिक विनय है। कायिक विनय - साधु और श्रावकों का कृतिकर्म अर्थात् वन्दना आदि करना, उन्हें देखकर खड़े होना, नमस्कार करना, अञ्जलि जोड़ना, आसन और उपकरण देना, अपनी ओर आते देखकर उनके सन्मुख जाना और जाने पर उनके पीछे चलना, उनके शरीर के अनुकूल मर्दन करना, समय के अनुसार अनुकरण का आचरण करना, संस्तर आदि करना, उनके उपकरणों का प्रतिलेखन करना इत्यादिक कायिक विनय है। यह कायिक विनय जिन वचन का अनुकरण करने वाले देशविरति श्रावक को यथायोग्य करना चाहिए। 26 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 127 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524622
Book TitleTulsi Prajna 2005 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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