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________________ लोकानुवृत्ति विनय - आसन से उठना, हाथ जोड़ना, आसन देना, पाहुणगति करना, देवता की पूजा अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार करना, ये सब लोकानुवृत्ति विनय है। किसी पुरुष के अनुकूल बोलना तथा देश व काल योग्य अपना द्रव्य देना यह भी लोकानुवृत्ति विनय है । अर्थ निमित्तक विनय - अपने प्रयोजन के लिए स्वार्थवश हाथ जोड़ना आदि अर्थ- निमित्तक विनय है । कामतन्त्र विनय - कामपुरुषार्थ के निमित्त विनय करना कामतन्त्र विनय है । भय-1 य-विनय भय के कारण विनय करना भय विनय है । मोक्ष विनय- मूलाचार में विनय को मोक्ष का द्वार कहा गया है। 17 औपपातिक सूत्र में विनय के सात प्रकार बतलाए हैं। उनमें सातवां प्रकार उपचार विनय है । उक्त श्लोक में उसी की व्याख्या है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, मन, वाणी और काय का विनय, ये छह प्रकार शेष रहते हैं । इन सबके साथ विनय की संगति उद्धत भव के त्याग के अर्थ में होती है। उद्धत भाव और अनुशासन का स्वीकार, ये दोनों एक साथ नहीं हो सकते। आचार्य और साधना के प्रति जो नम्र होता है वही आचारवान बन सकता है। इस अर्थ में नम्रता आचार का पूर्ण रूप है । विनय के अर्थ की व्यापकता की पृष्ठभूमि में यह दृष्टिकोण अवश्य रहा है। वसुनन्दि श्रावकाचार में पंच प्रकार की विनय के सम्बन्ध में विस्तार से चर्चा प्राप्त होती है जो इस प्रकार है दंसण - णाण चरित्ते तव उवयारम्मि पंचहा विणओ। पंचमगइगमणत्थ कायव्वो देसविरएण ॥ 320 (2) दर्शन विनय, ज्ञानविनय, चारित्र विनय, तप विनय और उपचार विनय, ये पांच प्रकार की विनय पंचम गति गमन अर्थात् मोक्ष प्राप्ति के लिए श्रावक को करना चाहिए। णिस्संकिय-संवेगाइ जे गुण वण्णिए मए पुव्वं । तेसिमणुपालणं जं वियाण सो दंसणो विणओ ॥ 321 ( 1 ) नि:शङ्कित, संवेग आदि गुणों के परिपालन को दर्शन विनय जानना चाहिए । ण णाणुवयर य णाणवंतम्मि तह य भत्तीए । जं पडियरणं कीरइ णिच्चं तं णाणविणओ हु ॥ 322 (2) तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2005 Jain Education International For Private & Personal Use Only 25 www.jainelibrary.org
SR No.524622
Book TitleTulsi Prajna 2005 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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