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________________ में हुआ है। विनय का अर्थ केवल नम्रता ही नहीं है। नम्र भाव आचार की एक धारा है, पर विनय को नम्रता में ही बांध दिया जाये तो उसकी सारी व्यापकता नष्ट हो जाती है। मूलाचार में लिखा है - ज्ञान, दर्शन चारित्र और तप के अतिचार रूप अशुभ क्रियाओं से निवृत्ति का नाम विनय है। आचार्य पूज्यपाद के अनुसार 'पूज्येष्वादरो विनयः' अर्थात् पूज्य पुरुषों का आदर करना विनय तप है। धवला' में लिखा है 'रत्नत्रयवत्सु नीचैवृत्ति विनयः' अर्थात् रत्नत्रय को धारण करने वाले पुरुषों के प्रति नम्र वृत्ति धारण करना विनय है। आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है - जो उत्तम पुरुष है, वे उत्तम पात्र को देखकर अभ्युत्थान इत्यादि उत्तम पात्र की क्रियाओं कर प्रवर्ते, क्योंकि उत्तम गुण होने से आदर, विनयादि विशेष करना योग्य है। इस लोक में निश्चयकर अपने से अधिक गुणों सहित महापुरुषों के लिए सामने आते हुए देखकर, उठकर खड़ा होकर सामने जाना, बहुत आदर से आइये, आइये ऐसे उत्तम वचनों से अंगीकार कर सेवा करना। अन्न पानादि से पोषना, गुणों की प्रशंसा कर उत्तम वचन कहना, विनय से हाथ जोड़ना और नमस्कार करना योग्य है। भगवती आराधना में वर्णन है - अशुभ क्रियायें ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप के अतिचार हैं। इनका हटाना विनय तप है। चारित्रसार के अनुसार - कषायों और इन्द्रियों को नम्र करना विनय है।2 सागार धर्मामृत में लिखा है कि मुमुक्षुजन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र तथा सम्यग्तप के दोष दूर करने के लिए जो कुछ प्रयत्न करते हैं, उसको विनय कहते हैं और इस प्रयत्न में शक्ति को न छिपाकर शक्त्यनुसार उन्हें करते रखना विनयाचार है।13। विनय के भेद - जैनधर्म वैनयिक (नमस्कार, नम्रता को) सर्वोपरि मानकर चलने वाला नहीं है। वह आचार प्रधान है। सुदर्शन ने थावच्चापुत्त अणगार से पूछाभगवन् ! आपके धर्म का मूल क्या है? थावच्चापुत्त ने कहा - सुदर्शन ! हमारे धर्म का मूल विनय है। वह विनय दो प्रकार का है- 1. आगार विनय, 2. अणगार विनय। पांच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत और ग्यारह उपासक प्रतिमायें - यह आगार-विनय है। पांच महाव्रत, अठारह पाप-विरति, रात्रि-भोज विरति, दशविध प्रत्याख्यान और बारह भिक्षु प्रतिमायें- यह अणगार विनय है। 4 तत्त्वार्थसूत्र में विनय को अन्तरंग तप में परिगणित किया है और उसके ज्ञान विनय, दर्शन विनय, चारित्र विनय और उपचार विनय, ये चार भेद निरूपित किये गये हैं। मूलाचार में विनय के पांच भेद प्रतिपादित किये गये हैं- वे हैं लोकानुवृत्ति विनय, अर्थनिमित्तक विनय, कामतन्त्र विनय, भयविनय और मोक्ष विनय। 24 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 127 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524622
Book TitleTulsi Prajna 2005 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size5 MB
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