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________________ परिवार के महत्त्व को कभी भी नकारा नहीं जा सकता, विशेषकर भारतीय परिप्रेक्ष्य में । इसलिए हमारे लिए करणीय और व्यावहारिक कार्य है- परिवार की पृष्ठभूमि स्वीकार करते हुए स्त्री-पुरुष समानता के लिए कार्य करना । इसके लिए हमें शिक्षा व रोजगार के अतिरिक्त साधन महिलाओं को उपलब्ध करवाने होंगे, उन्हें स्वतन्त्र जीवन का अधिकार एवं घर के कार्यों में स्त्री-पुरुष की बराबर की भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी । सामाजिक वर्ग अर्थात् जाति, रंग, समूह, वंश आदि के आधार पर समाज को विभक्त करना इन वर्गों में समानता की आवश्यकता पूरे सामाजिक तंत्र को है । यद्यपि सामाजिक वर्ग आर्थिक वर्गों से भिन्न है, लेकिन इनके बीच संबन्ध को देखा जा सकता है। भारत सरकार के अनुसूचित जाति एवं जन जाति के आयुक्त व मंडल आयोग (1970) की रिपोर्ट के अनुसार उच्च जातियों व उच्च आय समूहों तथा निम्न जातियों व निम्न आय समूहों के बीच एक उच्च सह-सम्बन्ध है । आर्थिक अवरोधों को तो दूर करने के प्रयत्न व्यक्तिगत स्तर पर भी होते हैं लेकिन एक व्यक्ति उन सामाजिक अवरोधों को दूर नहीं कर पाता जो उसे जन्म से मिले हैं तथा आर्थिक अवरोधों को दूर करने के बावजूद भी वे परिवर्तित नहीं होते । रंगभेद विषमतावादी समाज का एक आधार तो है लेकिन जाति विभाजन जैसा आंतरिक आधार नहीं । रंगभेद का आधार त्वचा है जबकि जाति भेद आंतरिक, मनौवैज्ञानिक एवं ऐतिहासिक पूर्वाग्रहों पर टिका है। एक देश के मूल निवासियों तथा आगंतुक जातियों के संबंध भी अभी अनसुलझे हैं। आर्यों के साथ अनार्यों जैसे निषाद (जंगली जनजातियां) व किरात (पहाड़ी जनजातियां) की आज भी समस्याएं हैं। इसके उदाहरण क्रमशः झारखण्ड आन्दोलन तथा दार्जीलिंग का पृथक्तावादी आन्दोलन रहे हैं । यद्यपि इन जातियों के लिए आर्थिक, राजनैतिक व शैक्षिक भेदभाव को कम करने हेतु सरकार द्वारा कुछ कदम उठाये गये हैं लेकिन सामाजिक समानता का प्रश्न अभी भी अनसुलझा है। सांस्कृतिक अभिव्यक्ति की समानता का प्रश्न भी सामाजिक समानता के प्रश्न से जुड़ा है । धर्म निरपेक्षता राज्यनीति के रूप में और धार्मिक सहिष्णुता व्यक्तिगत व्यवहार के रूप में हमारे सामने है। राज्य द्वारा धर्मनिरपेक्षता का अर्थ - "सभी धर्मों को समान महत्त्व " किया जाए तो यह सामाजिक सौहार्द की अपेक्षा सामाजिक असमानता, अंधविश्वास और साम्प्रदायिक हिंसा को बढ़ाता ही है । धर्म निरपेक्षता का राज्य के लिए अर्थ होगा - राज्य किसी भी धर्म के साथ प्रतिबद्ध नहीं है। राज्य वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समाज का पुनर्निर्माण करे ताकि सामाजिक समानता का मार्ग प्रशस्त हो । व्यक्तिगत स्तर पर धर्म का स्वीकरण एवं निर्वाह प्रायः परिवार की धर्म की परम्परा से ही होता है। धर्म का इस रूप में स्वीकरण व्यक्ति के मन से एक धर्म के प्रति श्रेष्ठता व दूसरे धर्म के प्रति हीनता के भाव पैदा कर राज्य द्वारा देता है। इसलिए राज्य द्वारा सभी धर्मों के प्रति आदर धर्मसहिष्णुता का आधार नहीं बनाया जा सकता। इसके लिए अपेक्षित है सभी धर्मों का स्वतन्त्र एवं वैज्ञानिक अध्ययन एवं ज्ञान । तुलसी प्रज्ञा अंक 124 4 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524619
Book TitleTulsi Prajna 2004 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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