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समाज के प्रत्येक व्यक्ति को सरकार, धर्म व समाज के बिना हस्तक्षेप के भोजन, पहनावे, शारीरिक भाव-भंगिमाओं, लक्ष्य एवं जीवन दर्शन की स्वतन्त्रता होनी चाहिए। उसे वैवाहिक जीवन, अकेले रहने, बहिर्मुखी या अन्तर्मुखी जीवन शैली चुनने की स्वतन्त्रता हो जब तक कि वह स्वयं दूसरे की जीवन शैली में हस्तक्षेप न करे ।
सामाजिक समानता आर्थिक या राजनैतिक समानता अथवा दोनों से ही सुनिश्चित नहीं की जा सकती। लिंग, जीवन स्तर, वर्ग, धर्म, जाति, वंश आदि भेदों को आर्थिक व राजनैतिक समानता से दूर नहीं किया जा सकता। सामाजिक समानता मनोवैज्ञानिक एवं ऐतिहासिक प्रश्न है, जिसे इनसे पृथक रखकर ही समाहित करने का प्रत्यन किया जाना चाहिए पर यह सुनिश्चित है कि सामाजिक समानता मूलभूत है इसके अभाव में राजनैतिक स्थिरता प्राप्त नहीं हो सकती ।
सामाजिक समानता के केन्द्र
आर्थिक एवं राजनैतिक समानता से भी अधिक सामाजिक समानता अपेक्षित है। उदारवादी परम्पराएं राजनैतिक समानता पर बल देती हैं जबकि उग्र सुधारवादी परम्परा आर्थिक समानता पर बल देती है। सामाजिक समानता का प्रश्न इन परम्पराओं से अछूता तो नहीं है लेकिन इस पर विचार करना आवश्यक नहीं समझा गया है। सामाजिक समानता के पांच केन्द्र हैं -
(1) पुरुष और महिला के बीच समानता
(2) सामाजिक वर्गों के बीच समानता
(3) सांस्कृतिक अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता
(4) वैचारिक अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता व्यक्तिगत जीवन की स्वतन्त्रता का समान अधिकार ।
समाज में महिलाएं लगभग 48-49 प्रतिशत हैं, इसलिए सामाजिक समानता की दृष्टि से पुरुष - - महिला समानता पर बल देना आवश्यक है। आधुनिक समाज भी पुरुष प्रधान समाज है और स्त्री पुरुष की सहायक है । मध्यकाल के समाज में तो स्त्री प्रायः विवाह, मातृत्व और घर के काम-काज का ही साधन मानी जाती रही है। उनके ये कार्य धर्म व रीतिरिवाजों द्वारा भी स्वीकृति किये हुए थे । आर्थिक- तकनीकों व औद्योगिक परिवर्तन के साथ धीमे ही सही लेकिन समाज में परिवर्तन हुआ है जिससे महिला - शिक्षा एवं महिलाओं के लिए रोजगार में वृद्धि हुई है। किन्तु उनके सामाजिक ढांचे और विशेषकर पारिवारिक ढ़ांचे में कोई उल्लेखनीय बदलाव नहीं आया है। स्त्री-पुरुष समानता की दृष्टि से प्लेटो के काल से ही यह विचार सामने आता रहा है कि परिवार को समाप्त किये बिना यह समानता संभव नहीं है ।
तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-जून, 2004
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