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________________ कंदंतो कंदुकुंभीसु, उडुपाओ अहोसिरो। हुयासणे जलंतम्मि, पक्कपुव्वो थणंतसो ॥ (उत्तरज्झयणाणि 19/49) पकाने के पात्र में, जलती हुई अग्नि में पैरों को ऊंचा और सिर को नीचा कर आक्रंदन करता हुआ मैं अनन्त बार पकाया गया हूँ। हुयासणे तत्र च बादराग्नेरभावात् पृथिव्या एव तथाविधः स्पर्श इति गम्यते। (बृहद्वृत्ति, पत्र 459) अग्निकायिक जीव दो प्रकार के होते हैं-सूक्ष्म और बादर । अग्नि के बादर जीवन नरक में नहीं होते। यहां जो अग्नि का उल्लेख है, वह सजीव अग्नि के लिए नहीं, किंतु अग्नि जैसे तापवान और प्रकाशवान पुद्गलों के लिए है। महादवग्गिसंकासं, मरुम्मि वइरवालुए। कलंबबालुयाए य, दडुपुव्वो अणंतसो॥ (उत्तरज्झयणाणि 19/50) महा दवाग्नि तथा मरु-देश और वज्र-बालुका जैसी कदंब नदी के बालु में मैं अनंत बार जलाया गया हूँ। हुयासणे जलंतम्मि, चियासु महिसो वि व। दडो पक्को य अवसो, पावकम्मेहि पाविओ॥ (उत्तरज्झयणाणि 19/57) पाप-कर्मों से घिरा और परवश हुआ मैं भैंसे की भांति अग्नि की जलती हुई चिताओं में जलाया और पकाया गया हूँ।" "निष्कर्ष उक्त विवरण का निष्कर्ष यह है-विद्युत्-ऊर्जा है। इसे काष्ठविहीन अग्नि भी कहा जा सकता है। जैसे तेजोलेश्या के प्रयोग के समय तेजोलब्धि-संपन्न व्यक्ति के मुख से निकलने वाली ज्वाला को अग्नि कहा जा सकता है, वैसे ही विद्युत् को अग्नि कहा जा सकता है। जैसे नरक में होने वाली ऊर्जा को अग्नि कहा गया है वैसे ही विद्युत् ऊर्जा की ऊर्जा को अग्नि कहा जा सकता है। जैसे तेजोलेश्या के तैजस परमाणुओं से उत्पन्न ऊर्जा अचित्त है और जैसे नरक में होने वाले तैजस परमाणुओं की ऊर्जा अचित्त है वैसे ही विद्युत् की तैजस परमाणुओं से उत्पन्न ऊर्जा अचित्त है।" 42. तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य श्रीमज्जयाचार्य ने इस विषय में बहुत ही स्पष्ट किया है, जिसके लिए द्रष्टव्य है-परंपरा की जोड़, जो 'तेरापंथ : मर्यादा और व्यवस्था', पृष्ठ 341-362 में प्रकाशित है। उसमें आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत-इन पांच व्यवहार को समझाया गया है। यहां कुछ पद्य उद्धृत हैं (पृष्ठ 341-346 ढाल 1(दूहा) 1. परंपरा नां बोल बहु, गणि बुद्धिवंत री थाप। दोष नहिं छै तेहमें, जीत ववहार मिलाप॥ 2. आगम, श्रुत, आणा, धारणा, जीत, पंचमो जोय । ए पंच ववहारे वर्ततां, श्रमण आराधक होय ।। 3. ठाणांग ठाणे पांच में, तथा सूत्र ववहार । भगवती' अष्टम शतक में, अष्टमुद्देशे सार॥ 80 - तुलसी प्रज्ञा अंक 124 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524619
Book TitleTulsi Prajna 2004 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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