SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 86
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 4. तिण सूं जीत ववहार में, दोष नहिं छै कोय। ___नीतिवान गणपति तणों, बांध्यो जीत सुध जोय॥ 5. सुध आलोची मुनि करे, असम्यक् पिण सम्यक् कहिवाय। आचारांग' अध्ययनपंचमें, पंचमक उद्देशे वाय॥ 11. तथाजोड़किवाड्यातणी, चोप कीधी स्वाम। तिण मांहै पिण थापियो, जीत ववहार सुधाम॥ आचार्य भिक्षु कृत किवाडिया री ढाल, गा. 21 से 24 तथासूतर मांही तो मूल न वरज्यो, परंपरा में पिण बरज्यो नांहि । तिण सूं जीत ववहार निर्दोष थाप्यां री, संका म करो मन मांहि ॥ जो कवाडिय री संका पडै तो, संका छै ठांम-ठांम। ते कहि कहि ने कितराएक केहूं, संका रा ठिकाणा तांम ।। साधु तो हिंसा रा ठिकाणा टाले, छद्मस्थ तणे ववहार। सुध ववहार चालतां जीव मर जाये तो, विराधक नहीं छै लिगार॥ इहां भीखणजी स्वामी आपणा ववहार में जीत ववहार थापै तिण में दोष न कह्यो। सुध ववहारे चालतां जीव मर जावै तो पिण विराधक नहीं, तिम सुध ववहार जाण ने थाप्यो तिण में पिण दोष नहीं। अन ते जीत ववहार में पाछला ने दोष भ्यासै तो छोड़ देणो। आगे निर्दोष जाण जाण ने सेव्यो त्यांने दोष न कहिणो। तथा सुयगडायंग श्रुतस्ध दूजो अध्ययन पांचमा में एहवी गाथा कहीअहाकम्मणि भुंजंति, 'अण्णमण्णस्स कम्मुणा'। उवलित्ते त्ति जाणिज्जा, अणुवलित्ते त्ति वा पुणो॥ एएहिं दोहिं ठाणेहिं, ववहारो ण विज्जई। एएहिं दोहिं ठाणेहिं, अणायारं विजाणए ॥ (सूयगडो 2, अ. 5, गाथा 8, 9) अथ इहां पिण कह्यो आधाकर्मी पिण सुध ववहार में निर्दोष जाणी ने भोगवें तो पाप कर्मे करि न लिपावै। तिम आचार्य बुद्धिवंत साधु आपणा ववहार में निर्दोष जाणी ने जीत ववहार थापे तिण में पिण दोष न कहिणो तथा भगवती, ठाणांग, ववहार सूत्र में पांच ववहार कह्या ते पाठकतिविहे णं भंते! ववहारे पण्णत्ते? गोयमा! पंचविहे ववहारे पण्णत्ते, तं जहा आगमे, सुतं, आणा, धारणा, जीए। जहा से तत्थ आगमे सिया आगमेणं ववहारं पट्ठवेजा। णो य से तत्थ आगमे सिया, जहा से तत्थ सुए सिया, सुएणं ववहारं पट्ठवेजा। णो य से तत्थ सुण सिया, जहा से तत्थ आणा सिया, आणाए ववहारं पट्ठवेजा। णो य से तत्थ आणा सिया, जहा से तत्थ धारणा सिया, धारणाए ववहारं पट्ठवेज्जा। णो य से तत्थ धारणा सिया, जहा से तत्थ जीए सिया, जीएणं ववहारं पट्ठवेज्जा। इच्चएहिंपचहिंववहारं पट्ठवेज्जा, तं जहां आगमेणं, सुएणं आणाए, धारणाए, जीएणं। जहा-जहा से आगम सुए आणा धारणा जीए तहा-तहा ववहारं पट्ठवेज्जा। से किमाहु भंते! आगमबलिय समणा निग्गंथा? तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-जून, 2004 - 81 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524619
Book TitleTulsi Prajna 2004 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy