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________________ चत्तारि अगणीओ समारभेत्ता, जहि कूरकम्मा भितवेंति बालं। ते तत्थ चिटुंतऽभितप्पमाणा मच्छा व जीवन्तु व जोइपत्ता ।। (सूयगडो 5/1/13) क्रूरकर्मा नरकपाल नरकावास में चारों दिशाओं में अग्नि जलाकर इन अज्ञानी नारकों को तपाते हैं। वे ताप सहते हुए वहां पड़े रहते हैं, जैसे अग्नि के समीप ले जाई गई जीवित मछलियां। अयं व तत्तं जलियं सजोई, तओवमं भूमिमणुक्कमंता। ते डज्झामाणा कलुणं थणंति, उसुचोइया तत्तजुगेसु जुत्ता॥ (सूयगडो 5/1/13) तप्त लोह की भांति जलती हुई अग्नि जैसी भूमि पर चलते हुए वे जलने पर करुण रुदन करते हैं। वे बाण से बींधे जाते हैं और तपे हुए जुए से जुते रहते हैं। (1) तओवमं-अग्नि जैसी सा तु भूमि....न तु केवलमेवोष्णा। ज्वतिलज्योतिषाऽपि अणंतगुणं हि उष्णा, सा, तदस्या औपम्य तदोपमा। (सूत्रकृतांग चूर्णि, पृ.135) एवा तदेवंरूपां तदुपमां वा भूमिम् । (सूत्रकृतांग वृत्ति-पत्र 135) यह भूमि का विशेषण है। इसका संस्कृत रूप है 'तदुपमाम्'। वह भूमि केवल उष्ण ही नहीं है, किंतु अग्नि से भी अनंत गुण अधिक उष्ण है। (2) ते डझमाण-वे जलने पर ते तं इंगालतुल्लं भूमिं पुणो पुणो ख़ुदाविजंति। (सूत्रकृतांग चूर्णि, पृ.135) नरकपाल धधकते अंगारे जैसी उष्ण भूमि पर नैरयिकों को जाने-आने के लिए विवश करते हैं। समूसियं णाम विधूमठाणं, जं सोयतत्ता कलुणं थणंति।। अहोसिरं कटु विगत्तिऊणं, अयं व सत्थेहि समूसवेंति ॥ (सूयगडो 5/2/8) वहां एक बहुत ऊंचा विधूम अग्नि का स्थान है, जिसमें जाकर वे नैरयिक शोक से तप्त होकर करुण-रुदन करते हैं। नरकपाल उन्हें बकरे की भांति औंधे सिर कर उनके सिर को काटते हैं और शूल पर लटका देते हैं। विधूमठाणं (1) विधूमो नामाग्निरेव, विधूमग्रहणाद् निरिन्धनोऽग्निः स्वयं प्रज्वलित: सेन्धनस्य ह्यग्नेरवश्यमेव धूमो भवति अथवा विधूमवद्, विधूमानां हि अङ्गाराणामतीव तापो भवति । (सूत्रकृतांग चूर्णि, पृ.136) चूर्णिकार ने बताया है जो अग्नि इंधन से ही प्रज्वलित होती है, उससे धुआं अवश्य ही निकलता है। नरक की अग्नि निरिंधन होती है। सयाजलं ठाण णिहं महंतं, जंसी जलंतो अगणी अकट्ठो। चिट्ठति तत्था बहुकूरकम्मा, अहस्सरा केई चिरट्ठिईया॥ (सूयगडो 5/2/11) सदा जलने वाला एक महान् वधस्थान है। उसमें बिना काठ की आग जलती है। वहां बहुत क्रूर कर्म वाले नैरयिक जोर-जोर से चिल्लाते हुए लंबे समय तक रहते हैं। जहा इहं अगणी उण्हो, एत्तोणंतगुणे तहिं। नरएसु वेयणा उण्हा, अस्साया वेइया मए।। (उत्तरज्झयणाणि 19/47) जैसे यहां अग्नि उष्ण है, इससे अनंत-गुना अधिक दुखमय उष्ण-वेदना वहां नरक में मैंने सही है। तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-जून, 2004 - 79 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524619
Book TitleTulsi Prajna 2004 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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