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________________ मानते यानि ज्वलनशील पदार्थ में जलने की क्षमता है पर जब तक कंबश्चन (दहन) क्रिया पूर्ण नहीं होती तब तक वे निर्जीव पदार्थ हैं, किन्तु यह बात ज्वलनशील पदार्थ पर ही लागू होती है, अज्वलनशील पदार्थ पर नहीं, क्योंकि अज्वलनशील पदार्थ कंबश्चन के लिए अयोग्य है। जो ज्वलनशील पदार्थ है, वे भी जब तक “Inition Point” प्राप्त नहीं होता, दहनक्रिया नहीं कर सकते हवा (ऑक्सीजन) की आपूर्ति भी आवश्यक सीमा में होने पर ही वे ज्वलनशील होते हैं, सीमा के बाहर वे अज्वलनशील बन जाते हैं । प्रश्न-17 -"तत्त्वार्थ सूत्र की व्याख्या में श्री सिद्धसेनगणीवरश्री तो स्पष्ट रूप से कहते हैं कि 'तेज:-प्रकाशयोरेकत्वाभ्युपगमात्।' (५,२४) अर्थात् तेउकाय (=दीए की ज्योत आदि) और उसका प्रकाश (= रोशनी (उजाला) = कृत्रिम प्रकाश) दोनों एक ही वस्तु हैयह शास्त्रमान्य है। इसलिए 'बल्ब में तो मात्र प्रकाश पुंज ही है। बल्ब के बाहर भी मात्र अजीव प्रकाशपुंज भी फैलता है', ऐसा नहीं माना जा सकता। इस तरह शास्त्रानुसार, तर्कानुसार, अनुभवानुसार तथा विज्ञान के अनुसार विचार कर के परस्पर समन्वय किया जाए तो बल्ब का विद्युत् प्रकाश बिजली की तरह सजीव अग्निकाय स्वरूप ही सिद्ध होता है।"37 उत्तर- "तत्त्वार्थ की व्याख्या में तेजः प्रकाशयोरेकत्वाभ्युपगमात्" का अर्थ तेउकाय और उसके प्रकाश की ऐकान्तिक एकता अभिप्रेत नहीं है। यह एकता सापेक्ष है। तेजोवर्गणा के पुद्गल और प्रकाश के पुद्गल दोनों ही पुद्गलद्रव्य की पर्याय हैं-इस अपेक्षा से एक हैं, ऐसा माना है, न कि अग्नि और प्रकाश एक हैं। तत्वार्थ सूत्र मूल में ही प्रकाश को पुद्गल की पर्याय बताया है। इस विषय की विस्तृत चर्चा आगे की जाएगी। प्रश्न-18 "आचारांग-नियुक्ति में श्री भद्रबाहुस्वामीजी ने कहा है'दहणे पयावण-पगासणे सेए य भत्तकरणे य। बायर तेउकाए उपभोगगुणा मणुस्साणं।।' (गा.१२१) इस प्रकार से बादर तेउकाय के उपयोग को बताया है। जलाना, तपाना, प्रकाशित करना, पसीना होना, पकाना इत्यादि स्वरूप में मनुष्य के उपयोग में जिस प्रकार प्रसिद्ध अग्नि उपयोगी बनती है, उसी प्रकार बिजली-इलेक्ट्रीसीटी भी उन कार्यों में ज्यादा उपयोगी सिद्ध होती है। इस प्रकार तेउकाय और कृत्रिम बिजली के गुणधर्म, स्वरूप, स्वभाव, कार्य, लक्षण इत्यादि परस्पर महद् अंश में समान होने से कृत्रिम बिजली-इलेक्ट्रीसीटी सजीव तेउकाय स्वरूप ही सिद्ध होती है तथा विद्युत् प्रकाश तो (पृष्ठ - ५१) में बताए अनुसार अपने लक्षण तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-जून, 2004 - 51 004 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524619
Book TitleTulsi Prajna 2004 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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