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________________ प्रकाश को विज्ञान ने "विद्युत् चुम्बकीय तरंग" माना है। विज्ञान और आगम दोनों आधारों पर प्रकाश पौद्गलिक ही है। प्रकाश दाहकता का ही गुण होता तो हम सब प्रकाश मात्र से जल जाते। ऐसा मानना अपने आप में ही सही नहीं है । कपड़ा ज्वलनशील है । यदि पर्याप्त रूप में गर्म हो जाए और ऑक्सीजन का सहयोग मिल जाए तो जल सकता है अन्यथा केवल गर्म होता है, जलता नहीं । 44 प्रश्न-16 'बल्ब में स्थापित फिलामेंट में तेउकाय जीवों की उत्पत्ति मानने में कोई शास्त्रीय रुकावट भी नहीं आती है, क्योंकि त्रस अथवा किसी भी प्रकार के जीवों के सजीव अथवा निर्जीव शरीरों में तथाविध कर्मवश तेउकाय के जीव उत्पन्न हो सकते हैं। ऐसा asia सूत्र में बताया हैं। यह रहा उस शास्त्र का पाठ -' इहगतिया सत्ता नानाविहजोणिया जाव कम्मनियाणेणं तत्थ वुक्कमा नानाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा अगणिकायत्ताए विउट्टंति' (सूय. श्रुतस्कंध - २/अध्ययन ३ / सूत्र- १७) मतलब कि पृथ्वी, जल इत्यादि के जीव निश्चित प्रकार के पुद्गल को ही शरीर के रूप में स्वीकारते हैं परन्तु ऐसा नियम अग्निकाय के लिए आगममान्य नहीं है। गैस, लकड़ी, रूई, कागज, प्लास्टिक, पेट्रोल, ओइल, घी, तेल, मिट्टी, पत्थर, इंट, केरोसीन, कपड़ा, रबर, कोयला, घास, रसायन, मुर्दा, लोहा, प्रकाशरूप ( = उजही रूप ) फोटोन आदि को अपने शरीर के रूप में परिवर्तित करते हैं । उसमें तेउकाय जीव उत्पन्न होते हुए दिखाई देते ही हैं। अग्निकाय के जीव गैस, लकड़ी आदि विविध पदार्थों को अपनी योनि स्वरूप बना कर उनमें उत्पन्न होते हैं । इसलिए फिलामेंट इत्यादि में तेउकाय जीवों की उत्पत्ति मान सकते हैं । वास्तव गडांगसूत्र की उपर्युक्त बात को श्री महावीरस्वामी भगवान की सर्वज्ञता सिद्ध करने के लिए एक महत्त्व का 'अंग' गिन सकते हैं। ''34 उत्तर- सूत्रकृतांग के उद्धरण से तेउकायिक जीव की उत्पत्ति के विषय में केवल इतना ही फलितार्थ निकलता है कि "ये जीव त्रस, स्थावर, जीवों के शरीरों में, सचित्त में अथवा अचित्त में अग्निकायिक जीव के रूप में उत्पन्न हो सकते हैं।" इससे यह तात्पर्य कभी नहीं निकलता कि ये जीव फिलामेंट में भी उत्पन्न हो सकते हैं, भले ही ऑक्सीजन न मिले । मूल बात तो यह है कि अग्निकायिक जीवों की योनि के लिए जो सामग्री अपेक्षित है, उनकी पूर्ति पहले होनी चाहिए। उस सामग्री के बिना गैस, लकड़ी आदि ज्वलनशील पदार्थों में भी अग्निकायिक जीव की न योनि बन सकती है, न अग्निकायिक जीव की उत्पत्ति हो सकती है । " तात्पर्य यह हुआ कि - गैस, लकड़ी, रूई आदि को तेउकाय के जीव अपने शरीर के रूप में तभी परिवर्तित कर सकते हैं जबकि तेउकाय की उत्पत्ति के लिए आवश्यक सारी शर्तें पूरी हो । जब तक यह शर्तें पूरी नहीं होती, हम गैस, लकड़ी, रूई आदि को तेउकाय नहीं 50 तुलसी प्रज्ञा अंक 124 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524619
Book TitleTulsi Prajna 2004 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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