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________________ होता है। उसके परिणाम स्वरूप वहाँ प्रकाश और गरमी की उत्पत्ति होती है, ऐसा वैज्ञानिक कहते हैं, तथा हमने पन्नवणासूत्र और जीवाभिगमसूत्र के संघरिससमुट्ठिए' पाठ के अनुसार बल्ब में पैदा होता हुआ उष्ण प्रकाश वास्तव में घर्षण से उत्पन्न हुए बादर अग्निकाय स्वरूप ही है, सजीव ही है-ऐसा निश्चित होता है। दूसरी ओर अग्निकाय के गुणधर्म विद्युत्-प्रकाश में देखने को मिलते हैं। प्रकाश, गरमी, दाहकता इत्यादि अग्निकाय के लक्षण उसमें देखने को मिलते ही हैं। विडीयो शूटिंग के समय जो लाईट चालू करने में आती है उसके पास में खड़े रहने वाले को सख्त गर्मी का अनुभव होता ही है। लम्बे समय तक यदि बल्ब को चालू रखा जाए तो बल्ब, मयुरी लेम्प इत्यादि गर्म हो जाते हैं। प्रकाशमान लेम्प के ऊपर यदि लम्बे समय तक कपड़ा रखा जाए तो बिल्लौर काँच वगैरह की सहाय के बिना भी वह जल जाता है। ये सब लक्षण बिजली के प्रकाश को तेउकाय स्वरूप में सिद्ध करते हैं।' '32 उत्तर - प्रस्तुत प्रश्न में उठाई गई शंकाओं को हम क्रमश: देखें 1. फिलामेंट में विद्युत्-प्रवाह के प्रवेश को वैज्ञानिक किस प्रकार समझाते हैं, उसकी विस्तृत चर्चा हम कर चुके हैं। (देखें, प्रथम भाग, नवां प्रभाग) वहाँ यह स्पष्ट हो चुका है कि टंगस्टन में धातु के परमाणुओं को विद्युत्-प्रवाह के विद्युत्-आवेश द्वारा अपनी ऊर्जा हस्तान्तरित की जाती है, जिससे टंगस्टन का तापमान बढ़ता है। वैसे तो प्रत्येक पदार्थ सामान्य तापमान पर भी उष्मा-विकिरण फैंकते रहते हैं पर जब 2500 डिग्री से. तक तापमान बढ़ जाता है, तो कुछ प्रतिशत उष्मा-ऊर्जा दृश्य रोशनी के रूप ऊर्जा में विकिरित होती है, जिसे हम बल्ब के प्रकाश के रूप में देखते हैं। इस प्रकार बल्ब के प्रकाश को संघर्ष-समुत्थित अग्नि कहना ठीक नहीं है। जैसे पहले बताया जा चुका है, ऑक्सीजन के अभाव में यह संभव भी नहीं है। प्रकाश, गरमी आदि गुणों के आधार पर भी विद्युत् प्रकाश को अग्नि नहीं माना जा सकता, क्योंकि ये गुण सूर्य के आतप में भी है पर सूर्य का आतप तेउकायिक नहीं है। सूर्य के आतप में भी लेंस के नीचे रखा कपड़ा जल जाता है। इससे क्या सूर्य का आतप स्वयं तेउकाय बन जाएगा? बल्ब पर रखा कपड़ा यदि बल्ब की उष्मा से तथा हवा के ऑक्सीजन से जलता है, तो इससे बल्ब का प्रकाश कहां से तेउकायिक हो गया? अतः स्पष्ट है कि-विद्युत्-ऊर्जा का प्रकाश-ऊर्जा में परिवर्तन केवल पौद्गलिक परिवर्तन है, (यदि ऑक्सीजन आदि प्राप्त न हो)। उसे सूर्य, चन्द्र या अन्य किसी भी प्रकाश की तरह पौद्गलिक ही मानना होगा। तार में इलेक्ट्रोन के घर्षण की बात भी विज्ञान द्वारा सम्मत नहीं है। वस्तुतः धातु सुचालक होने से इलेक्ट्रोन का प्रवाह तार में चलता है। इससे कहीं घर्षण की क्रिया नहीं है। धातु के अवरोधकता की चर्चा भी हम कर चुके हैं। अग्नि और प्रकाश में प्रकाश का गुण समान है पर शेष सारी प्रक्रिया भिन्न है, इसलिए प्रकाश और अग्नि एक नहीं हैं। प्रकाश को जैन दर्शन ने केवल पुद्गल पर्याय माना है। तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-जून, 2004 - - 49 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524619
Book TitleTulsi Prajna 2004 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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