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द्वारा तेउकाय स्वरूप सिद्ध हो ही चुका है। तेउकाय का कारण वायु है। इसलिए उपयुक्त कार्यकारणभाव ही बल्ब में तथाविध वायु का अस्तित्व सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है।
सामान्यतया एक नियम है कि जिस वस्तु का लक्षण जहाँ दिखाई देता है उस पदार्थ को उसी वस्तु के स्वरूप में मान्य करना चाहिए। जीव का लक्षण जहाँ दिखाई देता है उसका जीव के रूप में स्वीकार करना चाहिए। जड़ के लक्षण जहाँ दिखाई देते हैं उन चीजों का जड़ रूप से स्वीकार करना चाहिए। बृहत्कल्पभाष्यपीठिका में 'को सुत्ति अग्नि उत्ते, किंलक्खणो? दहण पयणाई' (बृ.क.भा. पीठिका गा.३०४) इस प्रकार दहन-पचन-प्रकाशन इत्यादि को तेउकाय जीव के लक्षण रूप में बताया गया है। (अनेक व्याख्या ग्रन्थों में इसी बात का प्रतिपादन है।)
प्रस्तुत में विद्युत्-प्रकाश में तेउकाय के उपर्युक्त लक्षणों में से प्रकाशकत्व, आतापना, दाहकत्व तो स्पष्टरूप में देखने को मिलते ही हैं। इसलिए उसे तेउकाय जीव के रूप में ही स्वीकारना पड़ेगा अन्यथा जड़-चेतन की व्यवस्था ही समाप्त हो जाएगी।
__ प्रथम कर्मग्रंथ-व्याख्या में श्री देवेन्द्रसूरिजी महाराज ने भी कहा है कि अग्निकाय का शरीर ही उष्ण स्पर्श के उदय से गरम होता है। ये रहे उनके शब्द 'तेजस्कायशरीराणि एव उष्णस्पर्शोदयेन उष्णानि' (गा.४४ वृत्ति)। मनुष्य क्षेत्र = अढ़ाई द्वीप की अपेक्षा से यह बात सुनिश्चित है। इसलिए शास्त्रानुसार गरमी, प्रकाश वगैरह अग्निकाय जीव के एक,दो लक्षण जहाँ दिखाई देते हैं फिर भी जिसका (उदाहरण के तौर पर शरीर की गरमी, जुगनू, का प्रकाश, जठराग्नि, बुखार की गर्मी, सूर्यप्रकाश, नरक की अग्नि, चन्द्रप्रकाश, मणि प्रकाश वगैरह) नाम लेकर शास्त्र निर्जीव के स्वरूप में सूचित करता हो, वह पदार्थ सजीव तेउकाय स्वरूप नहीं है- यह बात बराबर है। किंतु इसके अलावा जिन पदार्थों में गरमी, प्रकाश आदि तेउकाय जीव के लक्षण देखने को मिलते हैं उन्हें तो सजीव मानने में ही समझदारी है अन्यथा लक्षण के आधार पर लक्ष्यभूत पदार्थ का प्रामाणिक निश्चय करने की शास्त्रोक्त व्यवस्था ही टूट जाएगी।
___ इसलिए केवल विज्ञान के ही आधार पर इलेक्ट्रीसीटी इत्यादि को निर्जीव रूप में बताने का दुःसाहस छद्मस्थ जैसे हमें नहीं करना चाहिए, क्योंकि विज्ञान तो जगत के सभी पदार्थों को इलेक्ट्रोन-प्रोटोन-न्यूट्रोन स्वरूप में ही देखता है। तब फिर हम जैन क्या पृथ्वी
और जल को सजीव नहीं मानेंगे? साइन्स का प्रत्येक विद्यार्थी जानता है कि H,O= Water विज्ञान के सिद्धान्त के अनुसार बीज में से अंकुर का फूटना, वनस्पति पैदा होना इत्यादि एक प्रकार की रासायनिक प्रक्रिया ही है। अरे। पन्नवणा वगैरह आगमों में तेउकाय जीव के स्वरूप में प्रदर्शित की गई आकाशीय बिजली भी आधुनिक साइन्स के सिद्धान्त के अनुसार एक तरह से ऊर्जा का स्पंदन ही है। इस तरह से यदि सर्वत्र विचार किया जाए तो जीव का 52 -
तुलसी प्रज्ञा अंक 124
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