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________________ सैद्धान्तिक सहमति दे चुका है। निजी संस्थाओं का उद्देश्य आर्थिक दोहन होता है, गुणवत्ता नहीं। उनका पूरा विकास बाजारोन्मुख होता है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी की दुनिया में अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत, सम्मानित आई. आई. टी. जैसे संस्थानों में उदारीकरण के दौर में तब्दीलियाँ साफ तौर पर महसूस की जा सकती हैं। फिलहाल प्रायोजित शोधों का सिलसिला चल निकला है। पूरी तरह से निजीकरण के बाद बहुराष्ट्रीय-राष्ट्रीय पूँजीपति सीधे उच्च संस्थाओं को प्रायोजित करेंगे, पूरा प्रशासन और पाठ्यक्रम उनके द्वारा संचालित होगा। अब हम कल्पना करें कि ऐसी स्थिति में क्या होगा? धनी देशों को अपनी व्यवस्था चलाने वाला बौद्धिक वर्ग सस्ती कीमत पर विकासशील देशों से मिल जाएगा। उसी तरह धनबल पर विदेशी छात्र प्रवेश पाएँगे और मेधावी लेकिन निर्धन देशी छात्र अध्ययन से वंचित रह जाएंगे। इस क्षेत्र में हो रहे सूक्ष्म से सूक्ष्म तब्दीलियों पर निगाह रखने वाले जितेन्द्र भाटिया कहते हैं, 'दुखद यह है कि इस परिवर्तन की आड़ में विज्ञान और वैज्ञानिक, दोनों का अमानवीकरण और अवमूल्यन हुआ है। तकनीकी विकास की इस विशालकाय भट्टी में वैज्ञानिक प्रतिभा का इस्तेमाल अब अन्य संसाधनों की तरह एक जरूरी कच्चे माल की तरह होने लगा है। शायद तकनीकी प्रतिभा के इस भयानक अवमूल्यन पर पर्दा डालने के लिए ही आधुनिक पूँजी धर्मी शब्दावली में वैज्ञानिकों के जीते जागते कच्चे माल को मानव संसाधन जैसे गौरवान्वित नाम से बुलाया जाना जरूरी समझा गया है। लेकिन इस सारे भारी-भरकम खिताबों के बावजूद आज एक तरफ मशीनों, कम्प्यूटरों और अन्य स्वचालित संयत्रों पर विज्ञान की निर्भरता लगातार बढ़ती जा रही है, तो दूसरी तरफ पिछले दिनों के प्रयोगधर्मी और जिद्दी वैज्ञानिकों की कुर्सियों पर अब हर जगह यांत्रिक भाव से कम्प्यूटर और दूसरे संयत्र खड़खड़ाने वाले टेक्निशियन और साइंटिफिक वर्कर्स दिखाई देने लगे हैं। 15 निजीकरण की वकालत करते समय, अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों से बेरुखी अपनाने वाले उद्योगपति दूरदर्शी नीतियों के तहत अपने काम को शातिराना तरीके से अंजाम दे रहे हैं। इसे एक उदाहरण के द्वारा ज्यादा स्पष्ट तरीके से समझा जा सकता है। मुकेश अंबानी, कुमारमंगल बिड़ला जिन्हें देश की भावी शिक्षा नीति का मसविदा तैयार करने की जिम्मेदारी पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने सौंपी, वे ज्ञान और स्थापना की दुनिया में एकदम अपरिचित नाम हैं, वे मूलतः उद्योगपति हैं। उन्होंने अपनी एक महत्त्वपूर्ण स्थापना रखी कि शिक्षा को अनिवार्यतः बाजारोन्मुख होना चाहिए। क्या है इसकी प्रेरक शक्ति, जरा गौर कीजिए इन उद्योगपतियों की नजर से, 'बाजारोन्मुख शिक्षा का अर्थ महज सूचना व संचार तकनीक का ज्ञान हासिल कराने वाली शिक्षा से है। इसमें ज्यादा से ज्यादा फैशन डिजाइनिंग, विज्ञापन और मॉडलिंग जैसे विषयों का और इजाफा किया जा सकता है।' बाकी विज्ञान, समाजशास्त्र, मानसिकी और कला जैसे विषयों को सरकार के जिम्मे और हाशिये पर रखा गया है, क्योकि उनसे तुरन्त धन कमाने के अवसर नहीं बनते। यह भी उल्लेखनीय है कि तुलसी प्रज्ञा अप्रैल-जून, 2004 - 33 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524619
Book TitleTulsi Prajna 2004 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2004
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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