SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 6
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विआहपण्णत्ती में नय सिद्धान्त का विवेचन - डॉ. अनेकान्तकुमार जैन भगवान महावीर की वाणी द्वादशांगी में संकलित है। उस द्वादशांगी के पांचवें अंग का नाम है –विआहपण्णत्ती, जो भगवती सूत्र के नाम से सुप्रसिद्ध है। जैन साहित्य में तत्त्वज्ञान की दृष्टि से भगवती का स्थान महत्त्वपूर्ण है। इस आगम में अनेकान्त तथा नय का विवेचन किया गया है, जिससे मालूम पड़ता है कि अनेकान्त तथा नय का यह उद्गम काल था। आचार्य महाप्रज्ञ का इस संदर्भ में कहना है कि प्रस्तुत आगम में तत्त्वविद्या का प्रारम्भ "चलमाणे चलिए" इस प्रश्न से होता है। जैनदर्शन में प्रत्येक तत्त्व का प्रतिपादन अनेकान्त की दृष्टि से होता है। एकान्त दृष्टि के अनुसार चलमान और चलित - दोनों एक क्षण में नहीं हो सकते। अनेकान्त की दृष्टि के अनुसार चलमान और चलित-दोनों एक क्षण में होते हैं। समूचे आगम में अनेकान्त दृष्टि का पूरा उपयोग किया गया है। अनेकान्त का स्वरूप है - नयवाद या दृष्टिवाद । मध्य युग में तर्कप्रधान आचार्यों ने अनेकान्त का प्रमाण के साथ सम्बन्ध स्थापित किया है, वह मौलिक नहीं है। अनेकान्तवाद के अनुसार प्रमाण औपचारिक है, वास्तविक है नय।' इस कथन से नयों का महत्त्व उजागर होता है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव ___यद्यपि भगवतीसूत्र जैसे प्राचीन आगमों में प्रसिद्ध नैगमादि सात नयों का उल्लेख नहीं है तथापि नय सिद्धान्त के मूल को वहाँ खोजा जा सकता है। एक ही वस्तु के नाना रूप हैं। इसलिए द्रष्टा की रूचि और शक्ति, दर्शन का साधन, दृश्य की दैशिक और कालिक स्थिति, द्रष्टा की दैशिक और कालिक स्थिति, दृश्य का स्थूल और सूक्ष्म रूप आदि अनेक कारणों से नाना मतों की सृष्टि हो जाती है। प्रत्येक मत अलग-अलग विशेषताओं को लिये हुए होते हैं। उनके विचार भेदों में तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर -दिसम्बर, 2003 0 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524617
Book TitleTulsi Prajna 2003 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy