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________________ संघर्ष - समुत्थित अग्नि के उदाहरण में अरणी लकड़ी की रगड़ का उदाहरण है । 'आदि' शब्द से दो चकमक पत्थरों की रगड़ या संघर्ष को लिया जा सकता है।' सूर्यकांतमणि संभवतः अवतल (Concave) लेन्स के सदृश मणि है जिस पर प्रखर सूर्य किरणों को केन्द्रित कर अग्नि पैदा की जा सकती है । सभी प्रकार की अग्नि की उत्पत्ति जीव की योनि बनने पर होती है, जिसकी चर्चा हम कर चुके हैं । किन्तु तेजस्काय की जीव-योनि की निष्पत्ति में कारक पौद्गलिक उपादानों को समझे बिना उकायिक जीव के उक्त सभी प्रकारों में रही सदृशता या लाक्षणिकता स्पष्ट नहीं हो सकती । तेउकायिक जीवों की योनि में उष्णता की अनिवार्यता बहुत स्पष्टतः निर्दिष्ट भी है और प्रत्यक्षतः जानी जाती है- हालांकि 'उष्णता' से तात्पर्य होगा सामान्य तापमान से अत्यधिक तीव्र तापमान । किन्तु उचित तापमान का विभिन्न पदार्थों के सम्बन्ध में विभिन्न नाप होगा। कितने तापमान पर कौनसा पदार्थ अग्नि की योनि बन सकता है, यह मीमांसा आवश्यक है। इसके अतिरिक्त 'वायु' की उपस्थिति की भी अग्निकायिक जीवों के लिए अनिवार्यता बताई गई है। यह कौनसी वायु है जिसके बिना तेउकायिक जीव जीवित नहीं रह सकते हैं ? इसकी मीमांसा अपेक्षित है । आचारांग - भाष्य में इसे प्राणवायु बताया गया है। तीसरा कारक है - कौन - सा पदार्थ अग्नि पैदा कर सकता है, कौन सा नहीं ? यानि क्या सभी पदार्थ अग्नि को उत्पन्न करने में सक्षम है अथवा कौनसा नहीं है यह मीमांसा भी करणीय है । पहले हम विज्ञान के आधार पर अग्नि की प्रक्रिया को समझें और उसके पश्चात् उक्त मीमांसा करे, तो सारा विषय बहुत ही स्पष्ट होगा । विज्ञान द्वारा अग्नि की व्याख्या जब किसी भी प्रकार की अग्नि उत्पन्न होती है तब जो प्रक्रिया घटित होती है उसे सामान्यतः ‘जलने' या 'दहन' के रूप में होने वाली एक रासायनिक क्रिया के रूप में जाना जाता है। इसी प्रक्रिया को विज्ञान में "कंबश्चन" (Combustion) यानी 'दहन' कहा जाता है। — पाश्चात्य जगत् में वैज्ञानिक विकास से पूर्व अग्नि के विषय में काफी अंध-विश्वास एवं मान्यताएं फैली हुई थीं। उसे 'देवता' रूप मानकर उसकी पूजा आदि करने का उल्लेख मानव-सभ्यता के आदिम युग के इतिहास में प्राप्त होता है। 84 वैज्ञानिक क्षेत्र में रासायनिक विज्ञान के विकास के साथ "अग्नि" की समुचित व्याख्या लेवोइजियर (Lavoisier) नामक रसायन-वैज्ञानिक ने प्रस्तुत की तथा भावी अनुसंधान की दिशाएं स्पष्ट होने के साथ ही पता तुलसी प्रज्ञा अंक 122 32 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524617
Book TitleTulsi Prajna 2003 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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