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तो स्पष्ट होता है कि जहां अंगारे, ज्वाला, मुर्मुर, अर्चि और अलात के विषय में बहुतांश में समान अर्थ है वहां अग्नि, शुद्धाग्नि, उल्का, विद्युत्, अशनि, निर्घात, संघर्ष समुत्थित तथा सूर्यकांतमणि-निःसृत के विषय में अर्थ-भेद है अथवा व्याख्या का अभाव है।
दशवैकालिक-व्याख्याओं में 'अग्नि' को लोह पिण्ड प्रविष्ट तेजस् के रूप में बताया गया है वहां प्रज्ञापना की टीका में शुद्धाग्नि को लोह पिण्ड आदि में स्थित अग्नि के रूप में बताया है जबकि दशवैकालिक हारिभद्रीय टीका और जिनदास चूर्णि - दोनों में निरिन्धन अग्नि को शुद्धाग्नि के रूप में माना है। आचारांग नियुक्ति में 'अग्नि' के अन्तर्गत ईंधन में रही हुई जलन क्रिया स्वरूप अग्नि के साथ विद्युत्, उल्का, अशनि, संघर्ष - उत्पन्न और सूर्यकांतमणिनिःसृत अग्नि को लिया है जबकि प्रज्ञापना (मूल) में विद्युत् आदि छह भेद स्वतंत्र रूप में ही हैं और 'अग्नि' को स्वतंत्र भेद के रूप में नहीं माना है । दशवैकालिक (मूल) में विद्युत् आदि छः भेदों में केवल उल्का का उल्लेख है और व्याख्या में उसे 'गगनाग्नि' तथा 'विद्युत् (आकाशीय बिजली) आदि' के रूप में बताया है
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इन सभी भेदों की समीक्षा करने पर स्पष्ट हो रहा है कि अग्नि के भेदों के विषय में परम्परा का क्रमिक विकास हुआ है । दशवैकालिक की सूची पूर्वतर है और पण्णवणा की उत्तरकालीन। दिगम्बर ग्रंथों में मूलाचार” में अंगारे, ज्वाला, अर्चि मुर्मर, शुद्धाग्नि और अग्नि - ये छ: भेद बतलाये हैं । इसमें दशवैकालिक की तरह अग्नि और शुद्धाग्नि को अलगअलग लिया है तथा आचारांग नियुक्ति की तरह आकाशीय विद्युत्, वज्र (अशनि) आदि को शुद्ध अग्नि के अन्तर्गत ही बतलाया है। इसके आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि दशवैकालिक में निर्दिष्ट 'अग्नि' में अयः पिण्ड (लोह - पिंड) प्रविष्ट अग्नि को रखा गया था, जिसे प्रज्ञापना में शुद्धाग्नि में माना गया तथा केवल 'अग्नि' के भेद को हटाकर उल्का, आकाशीय विद्युत्, अशनि, निर्घात आदि को स्वतंत्र भेद के रूप में बताया जो दशवैकालिक की व्याख्या में 'उल्का' गगनाग्नि में थे तथा आचारांग निर्युक्ति तथा दिगम्बर ग्रंथ मूलाचार में 'शुद्धाग्नि' में थे । दशवैकालिक की 'शुद्धाग्नि' में 'निरिन्धन अग्नि' के रूप में व्याख्या का कोई अलग अर्थ नहीं निकलता। अगस्त्य चूर्णि में " एते विसेसे मोत्तुण सुद्धागणि" कहकर शेष सभी का समावेश शुद्धाग्नि में किया है। इस प्रकार शुद्धाग्नि के रूप में ही उल्का, विद्युत्, अशनि, निर्घात आदि को स्वीकार करने पर 'निरिन्धन अग्नि' अर्थ भी घटित होता है । जैसे अप्कायिक जीवों में “शुद्धोदक" से " अंतरिक्ष - जल 1980 को लिया है और वायुकायिक में शुद्ध वायु में मंद, शांत या आर्द्र वायु" को लिया है उससे शुद्ध का अर्थ है - प्राकृतिक । इस प्रकार 'शुद्धाग्नि' में भी 'उल्का आदि' (गगनाग्नि) को माना जाय तो उल्का आदि के भेद शुद्धाग्नि में आ जाएंगे, जैसा आचारांग नियुक्ति में 'अग्नि' के रूप में इन्हें माना है अथवा मूलाचार में 'शुद्धाग्नि' के रूप में माना है।
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तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2003
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