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पण्णवणा सूत्र की टीका में आचार्य मलयगिरि ने कुछ-कुछ भिन्न अर्थ किए हैं-7
अंगारे-धूम-रहित 2. ज्वाला - जाज्वल्यमान खदिर आदि (लकड़ी) की ज्वाला अथवा अग्नि से
प्रतिबद्ध दीपशिखा। मुर्मुर – भूसी आदि की भस्म-मिश्रित अग्निकण रूप। अर्चि - अग्नि से प्रतिबद्ध ज्वाला। अलात - अधजली लकड़ी।
शुद्धाग्नि - लोह-पिंड में प्रविष्ट अग्नि। 7. उल्का - आकाशीय पिंड-खंड के पतन से उत्पन्न अग्नि। 8. विद्युत् – आकाशीय बिजली का चमकना। 9. अशनि - आकाशीय बिजली के गिरने वाले अग्निमय कण। 10. निर्घात - वैक्रिय अशनिपात। 11. संघर्षसमुत्थित – अरणी आदि लकड़ी के निर्मथन से समुद्धृत। 12. सूर्यकांतमणिनिःसृत – सूर्य की प्रखर किरणों का सम्पर्क होने पर
सूर्यकांतमणि से जो उत्पन्न होती है। आचारांग-नियुक्ति में दी गई सूची इस प्रकार है -
"इस जगत में तेउकाय (अग्नि) के दो प्रकार हैं- 1. सूक्ष्म तेउकाय, 2. बादर तेउकाय सूक्ष्म तेउकाय (अग्नि) सम्पूर्ण लोक में है और बादर तेउकाय मात्र अढाई द्वीपसमुद्र में ही है।" बादर तेउकाय के पांच प्रकार इस प्रकार हैं -
1. अंगारे - जहां धूम और ज्वाला न हो ऐसा जला हुआ इंधन। 2. अग्नि - इंधन में रही हुई जलन क्रिया स्वरूप, विद्युत् – आकाश में चमकने
वाली उल्का और अशनि (वज्र) के संघर्ष से उत्पन्न होने वाली, सूर्यकांतमणि
से संसरण (प्रगट) होने वाली इत्यादि। 3. अर्चिः - इंधन के साथ रही हुई ज्वाला स्वरूप। 4. ज्वाला-अंगारे से अलग हुई जलती हुई ज्वालाएँ। 5. मुर्मुर - कोई कोई अग्नि के कण वाला भस्म।
बादर अग्निकाय के यह पांच भेद हैं।
दशवैकालिक के व्याख्या ग्रंथों - जिनदास चूर्णि, अगस्त्यसिंह चूर्णि और हारिभद्रीय टीका द्वारा प्रदत्त अर्थों तथा आचारांग नियुक्ति की तुलना जब प्रज्ञापना की टीका से करते हैं,
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तुलसी प्रज्ञा अंक 122
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