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________________ की आधारशिला है। आचारहीन व्यक्ति को तो वेद भी पवित्र नहीं कर सकते "आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः'। अतः संस्कारों से संस्कारित व्यक्ति का जीवन ऐहलौकिक एवं पारलौकिक दोनों दृष्टियों से श्रेष्ठ माना गया है। __ जैन आगम साहित्य में मात्र संस्कारों का ही चित्रण नहीं है, सच तो यह है कि विपुल साहित्य में हजारों वर्षों की जैन परम्पराएँ संग्रहीत हैं, जिनमें धर्म-दर्शन, श्रमण, आचारविचार, मंत्रविद्या, विभिन्न शास्त्रीय ज्ञान और विभिन्न गुणों की धर्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राजनैतिक गतिविधियाँ संकलित की गई हैं, जैसे-बौद्ध धर्म के आधारभूत वाङ्मय त्रिपिटिक का संकलन करने के लिए राजगृह, वैशाली एवं पाटलीपुत्र में समय-समय पर संगीतियाँ आयोजित की गईं, ठीक उसी प्रकार जैन आगमों के संकलन हेतु भी अनेक वाचनाओं का आयोजन किया गया। आगमों की पहली वाचना पाटलीपुत्र में, दूसरी वाचना मथुरा में और तीसरी वाचना वल्लभी में सम्पन्न हुईं। इस प्रकार पाँचवी शती ई. में आयोजित वल्लभी वाचना में ही जैन आगमों का स्वरूप निश्चित कर उनको ग्रन्थ का रूप दिया गया। यह भी माना जाता है कि गणधरों द्वारा संकलित लगभग एक हजार वर्ष के अन्तराल में विकसित आगमों के मूल पाठों में अनेक परिवर्तन एवं संशोधन होते रहे हैं जिनका प्रमाण आचार्य अभयदेव की स्थानांग टीका में उपलब्ध होता है। जैन आगमों का प्रतिपाद्य अत्यन्त विस्तृत एवं विविध है, इसलिए प्रस्तुत निबन्ध में मात्र संस्कारों के सन्दर्भ में चर्चा की जा रही है। जैसे वेदार्थ का अनुगमन करने वाली स्मृतियों में गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि तक षोडश संस्कारों का विवेचन प्राप्त होता है, उसी प्रकार जैन आगम साहित्य में भी इन संस्कारों का विस्तृत विवेचन मिलता है। गर्भवती महिला का विस्तृत वर्णन ज्ञातृधर्म कथा में उपलब्ध होता है। गर्भिणी महिलाएं गर्भ की रक्षा के लिए अत्यन्त सतर्क रहती हैं। वे स्थान और समय के अनुसार हित अर्थात् कल्याणकारक, मित अर्थात् अल्प मात्रा वाला तथा पथ्य अर्थात् स्वास्थ्यवर्धक भोजन ही किया करती थीं। बहुत अधिक कड़वा, खट्टा और मीठा भोजन उनके लिए वर्जित था। वे अत्यधिक चिन्ता, व्यथा, दीनता, मोह, भय और संत्रास से भी दूर रहती थी। गंध, माल्य तथा अलंकारों का सेवन उनके लिए उपयुक्त माना जाता था। जैन आगमों में गर्भिणियों के दोहदों का भी वर्णन मिलता है। दोहद का अर्थ है गर्भिणी के मन में किसी विशेष इच्छा का जागृत होना। इस प्रकार का दोहद प्राय: गर्भ के दो तीन महीने बीत जाने पर उत्पन्न होता था। राजा श्रेणिक की रानी धारिणी देवी को गर्भावस्था के तीसरे महीने में अकाल मेघ वर्षा का दोहद उत्पन्न हुआ। इसी प्रकार श्रेणिक की दूसरी रानी चेलणा देवी को यह दोहद हुआ कि वह अपने ही पति के उदर का माँस भून और तलकर भक्षण करे। इसी प्रकर अनेक दोहदों का उल्लेख जैन आगमों की टीकाओं में उपलब्ध होता है। 24 - तुलसी प्रज्ञा अंक 122 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524617
Book TitleTulsi Prajna 2003 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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