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संस्कारों की परम्परा में पुंसवन, पुत्रजन्म, नामकरण और कर्णबोध आदि अगले चरण में आते हैं। इन सबका विस्तृत विवरण हमें जैन आगमों में मिलता है। नौ महीने और साढ़े सात दिन पूर्ण होने पर महाराज श्रेणिक की रानी धारिणी देवी ने मेघकुमार को जन्म दिया । पुत्र प्राप्ति का समाचार सुन नरेश ने मुकुट मात्र को छोड़कर अपने सारे अलंकरण दास-दासियों में बाँट दिये। इतना ही नहीं, कारागार में बँधे अपराधियों को भी छोड़ दिया और दस दिन तक स्थितिपतिता उत्सव मनाने का आदेश दिया गया । पुत्र जन्म के पहले दिन जातकर्म संस्कार सम्पन्न हुआ। आवश्यक चूर्णी में अभ्यङ्गन ( तेलमालिश), स्नापन, अग्निहोम, भूतिकर्म, रक्षापोटलीबन्धन ( ताबीज बाँधना ) तथा शिशुओं के कानों में टी-टी की ध्वनि करने का उल्लेख मिलता है। पुत्र जन्म के दूसरे दिन जागरिका (जागरण) और तीसरे दिन चन्द्र-सूर्य दर्शन उत्सव मनाया जाता था । ग्यारहवें दिन सूतक की समाति मनाई जाती थी और स्वजनों, सम्बन्धियों को भोजनार्थ आमन्त्रित किया जाता था। इसके पश्चात् ही बालक का नामकरण होता था। ज्ञातृधर्म कथा, कल्पसूत्र तथा औपपातिक में इन समस्त संस्कारों का रमणीय चित्रण देखने को मिलता है ।
वैदिक स्मृतियों में जहाँ दो संस्कारों के बीच प्रभूत अवकाश मिलता है, वहीं जैन आगमों में वर्णित संस्कारों में क्रमिक विकास परिलक्षित होता है । बच्चा जब घुटनों के बल चलने लगता था तब परंगमण संस्कार, जब पैरों पर चलने लगता था तो चंक्रमण संस्कार, जब पहली बार बोलना सीखता था तो प्रजल्पन संस्कार और जब उसके कान बींधे जाते थे तब कर्णभेदन संस्कार मनाया जाता था। स्मृतियों में अन्नप्राशन और कर्णबेध का उल्लेख तो है परन्तु परंगमण, चंक्रमण तथा प्रजल्पन की चर्चा नहीं मिलती। अन्नप्राशन को जैन आगमों में नाम संस्कार कहा गया है। व्याख्या- प्रज्ञप्ति में संवत्सरण प्रतिलेखन (वर्षगाँठ ), चोलोपण (चूड़ाकर्म), उपनयन और कला - ग्रहण आदि संस्कारों का विवरण मिलता है। शिशुचर्या का अत्यन्त रोचक एवं सूक्ष्म चित्रण जैन आगमों में उपलब्ध होता है। ऐश्वर्य सम्पन्न लोग बच्चों के पालन-संवर्धन हेतु कुशलधाय रखते थे, ये धाइयाँ बच्चों को दूध पिलाती थीं । दूध पिलाने वाली धाय यदि स्थविर हो और उसके वक्ष से कम दूध आता हो तो बच्चा वृक्ष के समान पतला रह जाता है और यदि वक्ष स्थूल हो, यदि उनमें दूध का प्रवाह मन्द हो तो बच्चा कमजोर रह जाता है । इसी प्रकार जैन आगमों में स्नान कराने वाली, साज-सज्जा कराने वाली, गोद में रखने वाली धाइयों के भी गुण-दोषों की भरपूर चर्चा की गई है। जैसे यदि धाय स्थूल कटि वाली हो तो बच्चे के पैर फैल जाते हैं, यदि शुष्क कटि वाली हो तो बच्चे की कटि भग्न हो जाती है। धाय का स्वर यदि धीमा हो तो बच्चा तुतलाने लगता है या गूँगा हो जाता है और धाय का स्वर प्रचण्ड हो तो बच्चा भी जोर से बोलने लगता है। शैशव से जुड़े हुए ये व्यावहारिक सत्य जैन आगमों में अत्यन्त सूक्ष्मता के साथ वर्णित किये गये हैं।
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तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2003
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