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________________ अर्द्धमागधी आगमों में संस्कार डॉ. श्रीमती राजेश्वरी मिश्र 'राजश्री' जो प्रतिष्ठा सनातन धर्म में वेद और बौद्ध परम्परा में त्रिपिटिकों को प्राप्त है, वही प्रतिष्ठा जैनधर्म परम्परा में आगम सिद्धान्त को प्राप्त है। आगम से तात्पर्य आचारांगादि अंगग्रन्थों तथा औपपातिकादि अंगबाह्य ग्रन्थों से है। आगमों को श्रुत, सूत्र, ग्रन्थ, सिद्धान्त, शासन, आज्ञा वचन, उपदेश, प्रज्ञापना अथवा प्रवचन भी कहा गया है। जैन आगम धर्म-दर्शन, ज्ञान-विज्ञान के अक्षयस्रोत है। जैन धर्म का सारा स्वरूप जन-कल्याण के सन्दर्भ में केन्द्रित है। धर्म से संस्कृति का निर्माण होता है और जहाँ धर्म होता है, वहीं कल्याण होता है। जैन सूत्रों के अनुसार भगवान् महावीर ने स्वयं कुछ नहीं लिखा, उन्होंने अर्द्धमागधी में अपना उपदेश दिया और इन्हीं उपदेशों एवं विचारों को उनके गणधरों ने आधार बनाकर आगमों की रचना की। भगवान् महावीर ने अर्द्धमागधी में ही अपना उपदेश दिया और यह अर्द्धमागधी सर्वजन-बोधगम्य थी। ___ जैन आगमों की संख्या 46 स्वीकार की गई है, जिनमें से 45 ही उपलब्ध होते हैं-12 अंग, 12 उपांग, 10 पइन्ना (चतुःशरात्र), 6 छेयसुत्त (छेदसूत्र), 4 मूलसूक्त (मूलसूत्र) और नान्दी। आगम साहित्य में अनेक पद्धतियों का वर्णन है। यह आलेख जैन आगम साहित्य में संस्कारों को इंगित कर लिखा गया है। सम् उपसर्ग पूर्वक कृ धातु से करण या भाव में घञ् प्रत्यय करने पर संस्कार शब्द निष्पन्न होता है। संस्क्रियतेऽनेन इति संस्कारः अर्थात् वह क्रिया जिससे शरीर का मलापनयन, अतिशय गुणाधान या पाप क्षय होता है। जैसे साधारण पत्थर भी संस्कारित होकर देवत्व को प्राप्त कर लेता है, उसी प्रकार मानव भी संस्कारों से प्रतिभा सम्पन्न तथा अलौकिक व्यक्तित्व को धारण कर लेता है। सुसंस्कार जीवन तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2003 - - 23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524617
Book TitleTulsi Prajna 2003 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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