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करते समय कषायों के वशीभूत होकर साधनाच्युत हो जाता है । कषायों के वशीभूत साधक अपने स्वरूप का परित्याग कर पर स्वरूप को ग्रहण करता है । कषायों के निमित्त पर स्वरूप का ग्रहण ही विषमता को जन्म देता है । परिणामस्वरूप साधक अपने आध्यात्मिक आदर्श को भूल जाता है । कषायों के निमित्त उत्पन्न होने वाले दोषों के निवारणार्थ प्रतिक्रमण आवश्यक की प्रस्थापना हुई। इसमें साधक अपनी भूलों को सुधार कर अपनी वास्तविक स्थिति का परिज्ञान प्राप्त कर सकता है। जब साधक अपने द्वारा कृत्य दोषों का गहराई से अन्तर्निरीक्षण करता है तभी उसे अपनी वास्तविक अर्थात् भूल का परिज्ञान होता है । परिणामस्वरूप अपने दोषों का निराकरण कर साधक साधना के मार्ग पर दृढ़ता से आगे बढ़ता जाता है।
पांचवा आवश्यक है कायोत्सर्ग
आवश्यक सूत्र में प्रतिक्रमण के पश्चात् कायोत्सर्ग आवश्यक का विधान है। कायोत्सर्ग का शाब्दिक अर्थ है- शरीर का उत्सर्ग करना। यहां शरीर त्याग का अर्थ है - शारीरिक चंचलता एवं देहासक्ति का त्याग । कायोत्सर्ग में गहराई से चिन्तन कर उन दोषों को नष्ट करने का उपक्रम किया जाता है जो प्रतिक्रमण में शेष रह जाते । इसमें साधक बहिर्मुखी स्थिति से निकल कर अन्तर्मुखी स्थिति में पहुँचता है । प्रतिक्रमण से पापों की आलोचना हो जाने से चित्त पूर्ण रूप से निर्मल हो जाता है जिससे साधक धर्मध्यान और शुक्लध्यान से एकाग्रता पापों की आलोचना प्राप्त कर लेता है। इसीलिए कायोत्सर्ग को प्रतिक्रमण के पश्चात् रखा गया है। इसका प्रधान उद्देश्य है- - आत्मा का सान्निध्य प्राप्त करना और सहज गुण है – मानसिक संतुलन बनाए रखना। मानसिक संतुलन बनाए रखने से बुद्धि निर्मल और शरीर पूर्ण स्वस्थ रहता है। स्वास्थ्य की दृष्टि से भी कायोत्सर्ग का अत्यधिक महत्त्व है, क्योंकि मन, शरीर और मस्तिष्क का गहरा सम्बन्ध है । जब तीनों में सामञ्जस्य नहीं होता है तभी स्नायविक तनाव व्युत्पन्न होता है। आचार्य भद्रबाहु के अनुसार वही कायोत्सर्ग विशुद्ध होता है जिसमें देव, मानव और तिर्यञ्च सम्बन्धी सभी प्रकार के उपसर्ग उपस्थित होने पर भी साधक उन्हें समभाव पूर्वक सहन करे ।18
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आचार्य जिनदास गणि महत्तर ने कायोत्सर्ग के दो भेद बतलाए हैं—- द्रव्य कायोत्सर्ग और भाव कायोत्सर्ग । द्रव्य कायोत्सर्ग में सर्वप्रथम शरीर का निरोध किया जाता है। शारीरिक चंचलता तथा ममता का परित्याग कर जिन - मुद्रा में स्थित कायचेष्टा का निरुन्धन करना काय - कायोत्सर्ग है । तत्पश्चात् साधक धर्मध्यान और शुक्लध्यान में रमण करता है। मन को पवित्र विचार और संकल्प से बांधता है जिससे उसको किसी भी प्रकार की शारीरिक वेदना का अनुभव नहीं होता। वह काया में रहकर भी काया से अलग-थलग आत्मभाव में रहता है। यही भाव कायोत्सर्ग का भाव है। इस प्रकार का कायोत्सर्ग ही सभी प्रकार के दुःखों को नष्ट करने वाला है ।" कायोत्सर्ग को अनेक प्रयोजन से सम्पन्न किया जाता है जिसमें क्रोध, मान,
तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2003
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