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माया और लोभ का उपशमन इसका मुख्य प्रयोजन है। अमंगल, विध्न और बाधा के परिहार के लिए भी कायोत्सर्ग का विधान है। इसे षडावश्यक में स्वतंत्र स्थान दिया गया है जो इस भावना को अभिव्यक्त करता है कि प्रत्येक साधक को प्रातः सन्ध्या के समय यह चिन्तन करना चाहिए - यह शरीर पृथक् है और मैं पृथक् हूँ। मैं अजर, अमर और अविनाशी हूँ। कायोत्सर्ग बैठकर, खड़ा होकर और लेटकर तीनों अवस्थाओं में किया जाता है। छट्ठा आवश्यक है प्रत्याख्यान
प्रत्याख्यान का अर्थ है-त्याग करना। अविरति और असंयम के प्रतिकूल रूप में मर्यादा के साथ प्रतिज्ञा ग्रहण करना प्रत्याख्यान है। यदि स्पष्ट शब्दों में निरूपण करें तो मर्यादा के साथ अशुभ योग से निवृत्ति और शुभ योग में प्रवृत्ति का आख्यान करना प्रत्याख्यान है। आचार्य भद्रबाहु के अनुसार प्रत्याख्यान से संयम होता है, संयम से आश्रव का निरुन्धन होता है और आश्रव के निरुन्धन से तृष्णा का अन्त हो जाता है। तृष्णा के अन्त से उत्तम उपशमभाव समुत्पन्न होता है जिससे प्रत्याख्यान विशुद्ध होता है। उपशमभाव की विशुद्धि से ही चारित्र धर्म प्रकट होता है। सच्चरित्र से कर्म निर्जीर्ण होता है जिससे केवल ज्ञान और केवल दर्शन का दिव्य आलोक जगमगाने लगता है और शाश्वत मुक्ति रूप सुख प्राप्त होता है। यद्यपि सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण तथा कायोत्सर्ग के द्वारा आत्मशुद्धि की जाती है तथापि अन्तर्मानस में आसक्ति के प्रवेश का भय बना रहता है। एतदर्थ आवश्यक सूत्र में प्रत्याख्यान का विधान अभिहित है। इससे साधक शुभयोग में प्रवृत्त होता है और सद्गुणों को प्राप्त करता है। इस प्रकार प्रत्याख्यान में साधक मन, वचन और काय की अशुभ प्रवृत्तियों को रोककर शुभ प्रवृत्तियों में प्रवृत्त होता है। आश्रव का पूर्णरूपेण निरुन्धन होने से साधक पूर्ण निस्पृह हो जाता है जिससे उसे शान्ति प्राप्त होती है। प्रत्याख्यान से साधक के जीवन में अनासक्ति की विशेष जागृति होती है।
आवश्यक सूत्र में प्रतिपाद्य विषय के प्रासंगिकत्व को सुस्पष्ट करने के पूर्व उन पक्षों पर दृष्टिपात करना अनुचित नहीं होगा, जिसके द्वारा मानव अपने मूल स्वभाव से च्युत होता है। सम्पूर्ण आचार-दर्शन का सार समत्व-साधना है। समत्व हेतु प्रयास ही जीवन का सार तत्त्व है। सतत शारीरिक एवं प्राणमय जीवन के अभ्यास के कारण चेतना बाह्य उत्तेजनाओं एवं संवेदनाओं से प्रभावित होने की प्रवृत्ति विकसित कर लेता है। परिणामस्वरूप बाह्य वातावरणजन्य परिवर्तनों से प्रभावित होकर अपने सहज स्वभाव 'समत्व' का परित्याग कर देता है और संसार के प्रति ममत्व-भाव को पुष्ट करने की प्रवृत्ति विकसित कर लेता है। प्रवंचात्मक जगत के पदार्थों की उपलब्धि-अनुपलब्धि से स्वयं को सुखी-दु:खी समझता है। उसमें 'पर' के प्रति आकर्षण या विकर्षण का भाव समुत्पन्न होता है। वह उस पर' के साथ रागात्मक सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास करता है और परिणामस्वरूप वह वेदना, बंधन या दु:ख को प्राप्त करता है। यह राग न केवल उसे समत्व के स्वकेन्द्र से पदच्युत करता है, प्रत्युत्
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तुलसी प्रज्ञा अंक 122
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