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________________ जैन साधना में तीर्थंकरों की स्तुति का विधान अभिहित है और षडावश्यक तीसरा आवश्यक वन्दना में चतुर्विंशतिस्तव को स्थान दिया गया है। साधना के आदर्श रूप में तीर्थंकरों की उपासना के पश्चात साधना मार्ग के पथप्रदर्शक गुरु के विनय का विधान आवश्यक सूत्र में अभिहित है। मन, वचन और काय का वह प्रशस्त व्यापार जिसमें पथ-प्रदर्शक गुरु एवं विशिष्ट साधनारत साधकों के प्रति श्रद्धा और आदर प्रकट किया जाता है, वंदना है। इसमें उन्हीं व्यक्तियों को प्रणाम किया जाता है जो साधना-पथ पर अपेक्षाकृत आगे बढ़े हुए हैं। जैन विचारणानुसार जो साधक चारित्र एवं सद्गुणों से सम्पन्न हैं, वे ही वंदनीय हैं। आचार्य भ्रदबाहु ने आवश्यक नियुक्ति में सुस्पष्ट शब्दों में लिखा है-ऐसे गुणहीन व्यक्तियों को नमस्कार नहीं करना चाहिए, क्योंकि गुणों से रहित व्यक्ति अवन्दनीय होते हैं। अवन्दनीय व्यक्तियों को नमस्कार करने से कर्मों की निर्जरा नहीं होती, न ही कीर्ति में वृद्धि होती है। असंयम और दुराचार से अनुमोदित होने पर नये कर्म बंधते हैं, अत: उनको वन्दन अनुचित है। एक अवन्दनीय व्यक्ति को जानता है कि मेरा जीवन दुर्गुणों का आगार है, यदि वह सद्गुणी व्यक्तियों से नमस्कार ग्रहण करता है तो वह अपने जीवन को दूषित करता है। असंयम की वृद्धि कर अपना ही पतन करता है। जैनधर्म की दृष्टि से साधक में द्रव्य-चारित्र और भाव-चारित्र दोनों ही आवश्यक है। गुरु को ऐसा होना चाहिए कि जिसका द्रव्य और भाव दोनों ही चारित्र निर्मल हो, व्यवहार और निश्चय दोनों ही दृष्टियों से जिसके जीवन में पूर्णता हो, वही सद्गुरु वन्दनीय और अभिनन्दनीय हैं। साधक को ऐसे ही सद्गुरु से पवित्र प्ररेणा ग्रहण करनी चाहिए। वन्दना आवश्यक में ऐसे ही सद्गुरु को नमन करने का विधान है। वंदना के फलस्वरूप गुरुजनों से सत्संग का लाभ होता है । सत्संग से शास्त्र-श्रवण, शास्त्र-श्रवण से ज्ञान, ज्ञान से विज्ञान और फिर क्रमशः प्रत्याख्यान, संयम-अनास्रव, तप, कर्मनाश, अक्रिया एवं अन्त में सिद्धि के अन्तर्मानस में किसी भी प्रकार की स्वार्थ भावना/आकांक्षा/भय अथवा अन्य किसी प्रकार के अनादर की भावना वर्तमान नहीं रहनी चाहिए। जिनको वन्दन किया जाये उनको समुचित सम्मान प्रदान करें। उस समय साधक के मन, वचन और काय में एकाकारता होनी चाहिए जब वह वन्दनीय के चरणों में नतमस्तक हो। तथागत बुद्ध ने धम्मपद में कहा है – सरल मानस वाले महात्माओं को नमन करना चाहिए। सदा वृद्धों की सेवा करने वाले और अभिवादनशील पुरुष की चार वस्तुएँ वृद्धि को प्राप्त होती हैं - आयु, सौन्दर्य, सुख और बल।" श्रीमद्भागवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने 'माँ नमस्कुरू' कहकर वंदन के लिए भक्तों को उत्प्रेरित किया है।12 चौथा आवश्यक प्रतिक्रमण प्रतिक्रमण जैन परम्परा का एक विशिष्ट शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ है ----पुनः लौटना। जब साधक अपनी मर्यादाओं का अतिक्रमण कर मर्यादाविहिन अवस्था में अथवा तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2003 - 1 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524617
Book TitleTulsi Prajna 2003 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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