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________________ श्रीमद्भगवद्गीता वैदिक परम्परा का एक प्रतिनिधि ग्रन्थ है जिसमें स्पष्ट रूप से निरूपित है कि कर्म, भक्ति तथा ध्यान आदि का उद्देश्य समत्व है। बिना समत्व के ज्ञान अज्ञान है। जिसमें समत्वभाव है वही वस्तुतः यथार्थ ज्ञानी है। समता की उपस्थिति में ही कर्म अकर्म बनाता है जबकि समत्व के अभाव में कर्म का बन्धकत्व यथावत रहता है। समत्व से सम्पन्न साधक ही सच्चा साधक है। समत्व में वह अपूर्व शक्ति है जिसमें अज्ञान ज्ञान के रूप में परिणत हो जाता है और वह ज्ञान योग के रूप में प्रतिष्ठित होता है। गीताकार की दृष्टि से स्वयं परमात्मा/ब्रह्म सम है। तात्पर्य यह है कि व्यक्ति सम में अवस्थित रहता है, वह परमात्मभाव में ही अवस्थित है। समत्व को और अधिक स्पष्ट करने हेतु आचार्य शंकर लिखते हैं-समत्व का अर्थ तुल्यता है, आत्मवत् दृष्टि है। जिस प्रकार सुख मुझे प्रिय और दुःख अप्रिय है वैसे ही विश्व के सभी प्राणियों को सुख प्रिय/अनुकूल है, दुःख प्रतिकूल/अप्रिय है। इस प्रकार जो विश्व के प्राणियों में अपने ही सदृश सुख और दुःख को अनुकूल और प्रतिकूल रूप में देखता है, वह किसी के भी प्रतिकूल आचरण नहीं करता। वही समदर्शी है। सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टि रखना समत्व है। इस प्रकार बौद्ध परम्परा अथवा वैदिक परम्परा में जिस रूप में भी सामायिक का निरूपण हुआ है, उसका मूलभाव समभाव है। समत्वयोगी साधक वैचारिक दृष्टि से समदर्शी होता है और भोगासक्ति के प्रति अनाकर्षण का भाव रखता है। उसका आचार निर्मल और विचार उदात्त होते हैं। वह 'जीओ और जीने दो' के सिद्धान्त में विश्वास करता है। द्वितीय आवश्यक चतुर्विंशतिस्तव- इसमें साधक सावध योग से निवृत्त होकर अवलम्बन स्वरूप चौबीस तीर्थकरों की स्तुति करता है। जैन साधना में स्तुति का स्वरूप बहुत कुछ भक्ति मार्ग की जप-साधना या नाम-स्मरण से मिलता है। इसके माध्यम से साधना के आदर्श तीर्थंकर या सिद्धपुरुष किसी उपलब्धि की अपेक्षा को पूरा नहीं करते हैं, प्रत्युत् वे मात्र साधना के आदर्श या आलोक स्तम्भ हैं जिसका अनुसरण कर साधक आत्मोत्कर्ष तक पहुँच सकता है। जैन एवं बौद्ध दोनों ही स्वीकार करते हैं-व्यक्ति स्वयं के प्रयत्नों से आध्यात्मिक उत्थान या पतन कर सकता है। यदि साधक स्वयं पाप से मुक्ति का प्रयास नहीं करता और केवल भगवान से मुक्ति की प्रार्थना करता है तो जैन विचारणानुसार यह सर्वथा निरर्थक है, क्योंकि इस प्रकार की विवेकशून्य प्रार्थनाएँ मानव को दीन-हीन और परापेक्षी बनाती हैं। जो साधक स्वयं पुरुषार्थ नहीं करता, उस साधक को केवल तीर्थंकरों की स्तुति मुक्ति प्रदान नहीं कर सकती। व्यक्ति का पुरुषार्थ ही उसे मुक्ति की ओर ले जा सकता है। चूकिं चतुर्विंशतिस्तव करने से दर्शन की विशुद्धि होती है, श्रद्धा परिमार्जित होती है और सम्यक्त्व विशुद्ध होता है। उपसर्ग और परिषहों को सहन करने की शक्ति विकसित होती है एवं तीर्थंकर/ईश्वर बनने की प्ररेणा मन में उबुद्ध होती है। अत: भक्ति का लक्ष्य अपने आप का साक्षात्कार है, अपने में रही शक्ति की अभिव्यक्ति करना है। साधक के अन्तर्मानस में जिस प्रकार की श्रद्धा या भावना होगी उसी के अनुरूप उसका जीवन बनेगा। इसी के निमित्त 14 - तुलसी प्रज्ञा अंक 122 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524617
Book TitleTulsi Prajna 2003 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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