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जगत दो भागों में विभक्त है --- पदार्थ का जगत और आत्मा का जगत, स्थूल जगत और सूक्ष्म जगत । मूर्त जगत और अमूर्त जगत, इन सबके बीच संतुलन बनाना होगा। स्थूल और सूक्ष्म, पदार्थ और आत्मा, मूर्त और अमूर्त के संतुलन से ही समस्याएँ समाहित होंगी। हमें पदार्थ से कुछ लेना-देना नहीं है, यह सोचना सही नहीं है।
__ पदार्थ के बिना व्यक्ति का काम नहीं चलता, जीवन की यात्रा नहीं चलती। इसी तरह यदि हम केवल पदार्थ में उलझे रहे तो समस्याएँ उलझती ही चली जायेंगी। समस्या को सुलझाने के लिए प्रतिपक्ष को खड़ा करना आवश्यक है । प्रतिपक्ष बिना, दो विरोधी युगलों के बिना विश्व चल नहीं सकता।
(2) लोकतन्त्र की कल्पना करने वालों ने बहुत बड़ी सच्चाई को खोजा । लोकतन्त्र में पक्ष के साथ विपक्ष का होना जरूरी है। अगर विरोधी दल नहीं है तो लोकतन्त्र ठीक नहीं चल सकता । अनेकान्त का सिद्धान्त है—विरोधी युगल का होना अनिवार्य है। उसके बिना सम्यक् व्यवस्था संपादित नहीं हो सकती।
धर्मास्तिकाय नहीं है तो अधर्मास्तिकाय नहीं हो सकती। जैन तत्त्व-ज्ञान के अनुसार धर्मास्तिकाय जो गति सहायक तत्त्व है, को अपने अस्तित्व के लिए अधर्मास्तिकाय जो स्थिति सहायक तत्त्व है, को स्वीकार करना जरूरी है। अनेकान्त का यह वैज्ञानिक सिद्धान्त है जो व्यवहार में, लोकतंत्र में आया पर क्रियान्वित नहीं हो सका। पूरकता के स्थान पर झूठा विरोध करना एक विडंबना है। अनेकान्त की सार्थक अभिव्यक्ति है— पदार्थ और आत्मा की स्वीकृति।
आचार्य महाप्रज्ञ की भाषा में, "समाज है तो असमाज का होना जरूरी है। भोग है तो त्याग का होना जरूरी है। पदार्थ है तो अपदार्थ का होना जरूरी है।"
(3) जीवन और जगत के विकास में पुरुषार्थ और नियति दोनों का योग रहता है। दोनों की अपनी सीमाएँ हैं। नियति को छोड़कर केवल पुरुषार्थ के आधार पर जीवन की समग्रता से व्याख्या नहीं की जा सकती तथा वह नियति अकिंचित्कर बन जाती है जिसके साथ पुरुषार्थ जुड़ा हुआ नहीं होता। हम नियति के पुरुषार्थ को जानें और पुरुषार्थ की नियति को जानें।
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व्यक्तिगत चेतना और सामुदायिक चेतना, दोनों का मूल्य है। व्यक्तिगत चेतना स्वाभाविक है, व्यक्ति में अपनी प्रेरणा है, अपना स्वार्थ है। सामुदायिक चेतना का अभिप्राय है कि
- तुलसी प्रज्ञा अंक 120-121
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