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व्यक्तिगत चेतना उसमें विलीन हो जाए। परिवार में, समाज में, सामुदायिक चेतना का महत्त्व है। महाप्रज्ञ जी लिखते हैं कि "व्यक्ति को समुदाय से भिन्न करने में कठिनाई का अनुभव कर रहा हूँ। इसलिए कि जल राशि से विलग पड़ा कण अपना अस्तित्व नहीं रख पाता।" समुदाय को व्यक्ति से भिन्न कहने में भी सरलता का अनुभव नहीं हो रहा है। इसलिए कि जल कणों से भिन्न जल राशि की अपनी कोई अस्मिता नहीं है। व्यक्ति और समुदाय दोनों को एक कहने में भी समस्या का समाधान नहीं देख रहा हूँ। इसलिए कि जलकण पर भी जलपोत नहीं तैरते
और जलराशि को कभी सिर पर नहीं उठाया जा सकता। सरल मार्ग यह है कि जलकण और जलराशि में रहे अभेद और भेद-दोनों को एक साथ देखें। तात्पर्य की भाषा में, "विरोधी प्रतीत होने वाले धर्मों का एक साथ होना समन्वय है। वस्तु जगत में पूर्ण सामंजस्य और सह अस्तित्व है। विरोध की कल्पना हमारी बुद्धि ने की है। उत्पाद और विनाश, जन्म और मृत्यु, शाश्वत और अशाश्वत-ये सब साथ-साथ चलते हैं।"
(5) विज्ञान की सीमा वस्तु (ऑब्जेक्ट) है । दर्शन चेतना (सब्जेक्ट) प्रधान है। विज्ञान को चेतना में घटित घटना मान्य नहीं है और दर्शन को पदार्थ में घटित होने वाली घटनाओं से संबंध नहीं है। इसीलिए इन दोनों की पारस्परिक पूरकता का विकास होना चाहिए। इससे वैश्विक समस्याओं के समाधान में बहुत बड़ा योग मिल सकता है। आज का विज्ञान कहता हैयूनिवर्स है तो एन्टी यूनिवर्स भी है। कण है तो प्रतिकण भी है। अणु है तो प्रति-अणु भी है। पदार्थ है तो प्रति-पदार्थ भी है। जगत है तो प्रति-जगत भी है। मेटर है तो एण्टीमेटर भी है। यदि एण्टीमेटर न हो तो मेटर का कोई अस्तित्व नहीं हो सकता। यदि प्रति अणु न हो तो अणु का और प्रतिजगत न हो तो जगत का कोई अस्तित्व नहीं हो सकता।
(6) 'ऋषभायण' महाप्रज्ञ जी द्वारा प्रणीत एक श्रेष्ठ महाकाव्य है। महाप्रज्ञ जी ने 'प्रतिपक्ष के सिद्धान्त' का इस महाकाव्य में अनेक स्थलों पर प्रयोग किया है। साध्वी श्रुतयशा ने इसे ऋषभायण में विरोधाभास अलंकार के रूप में प्रस्तुत किया है, वे लिखती हैं - अनेकान्त गर्भित विरोधाभासअनेक स्थलों पर विरोध दिखाई देता है, पर अनेकान्त दृष्टि से वह विरोध नहीं है, यथा
दो का नाम अभय है भाई, भय का अर्थ अकेला है।
द्वन्द्व सत्य द्वंद्वात्मक जग में, गुरु के आगे चेला है। दो सापेक्षता का प्रतीक है, एक निरपेक्षता का। जहाँ सापेक्षता है वहाँ सत्य है और जहाँ सत्य है वहाँ अभय । एकांत निरपेक्ष होता है और उसे अपने प्रतिपक्षी एकान्त से सदा भय बना रहता है। सुंदोपसुंद न्याय से एकांत की पराजय हो जाती है। गुरु के आगे चेला कहने का
तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-सितम्बर, 2003
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