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________________ महाप्रज्ञ का प्रतिपक्ष का सिद्धान्त - प्रो. महावीर राज गेलड़ा आचार्य महाप्रज्ञ जैन दर्शन के अनेकान्त सिद्धान्त के सफल व्याख्याता हैं। वे इस सत्य के पक्षधर हैं कि अस्तित्व में पक्ष का प्रतिपक्ष अर्थात् विरोधी युगलों का होना आवश्यक है। प्रतिपक्ष बिना, दो विरोधी युगलों के बिना विश्व चल नहीं सकता। विज्ञान को पढ़ने वाला जानता है कि कोरा 'मेटर' इस विश्व में नहीं है अगर 'मेटर' है तो 'ऐंटीमेंट' भी है। प्रतिपक्ष के बिना दुनिया का काम नहीं चलता। महाप्रज्ञजी ने अनेक स्तरों पर, अनेक स्थितियों में इस तथ्य का प्रतिपादन किया है तथा शरीर शास्त्र और मनोविज्ञान में अनुप्रयोग किये हैं जिससे इस अस्तित्वगत सत्य को 'महाप्रज्ञ का प्रतिपक्ष सिद्धान्त' कहना अधिक समीचीन प्रतीत होता है। प्रतिपक्ष सिद्धान्त की अवधारणाएँ• प्रतिपक्ष का अर्थ है भिन्न दिशा में होना। • प्रतिपक्ष का होना वस्तु जगत की प्रकृति है। यह शारीरिक संरचना और सृष्टि संरचना की प्रकृति है। • पक्ष-प्रतिपक्ष परस्पर में विरोधी होते हुए भी सर्वथा विरोधी नहीं हैं। प्रकृति में अत्यन्त प्रतिपक्ष (विरोध) में भी पक्ष (साम्यता) और अत्यन्त पक्ष (साम्यता) में भी प्रतिपक्ष (विरोध) प्रकट होता है। यह सह अस्तित्व का आधार है। महाप्रज्ञजी के विचारों का कुछ संकलन पाठकों के लिए प्रस्तुत है, जो प्रतिपक्ष सिद्धान्त की पुष्टि करता है। तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-सितम्बर, 2003 - - 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524615
Book TitleTulsi Prajna 2003 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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