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________________ शरीर वर्गणा तथा श्वासोच्छ्वास वर्गणा के पुद्गल हैं। ये पुद्गल अपने आप में अचित्त हैं तथा जब जीव इन्हें ग्रहण कर लेता है तब वे जीव के शरीर के रूप में परिणत हो जाते हैं और इनका सचित्त रूप में परिणमन हो जाता है । जब ये जीव से 'मुक्त' हो जाते हैं, तो पुनः अचित्त पुद्गल हो जाते हैं । तैजस, भाषा, मन और कार्मण वर्गणाओं के पुद्गलों का भी जब तक जीव द्वारा ग्रहण नहीं होता, तब तक अपने आप में वे अचित्त हैं। जब जीव इन्हें तैजस शरीर आदि के रूप में परिणत कर आत्मसात् कर लेता है तब ये तैजस शरीर आदि के पुद्गल सचित्त रूप में परिणत हो जाते हैं।‘“इस कारण से आहार ( औदारिक, वैक्रिय, आहारक और श्वासोच्छ्वास) तैजस, भाषा, मन और कार्मण, इन पांच वर्गणाओं को ' बन्धनीय' कहा गया है तथा वे बाह्य वर्गणाएं कहलाती हैं, क्योंकि तेईस वर्गणाओं में ये पांच शरीर पृथग्भूत हैं, इनकी बाह्य संज्ञा है। पांच शरीर अचित्त वर्गणाओं में तो सम्मिलित नहीं किए जा सकते, क्योंकि सचित्त को अचित्त मानने से विरोध आता है। उनका सचित्त वर्गणाओं में भी अन्तर्भाव नहीं होता, क्योंकि वित्रसाउपचयों के बिना पांच शरीरों के परमाणुओं को ही सचित्त वर्गणाओं में ग्रहण किया है। 15 द्वारा गृहीत होने से पूर्व इन आठों वर्गणाओं के पुद्गल अपने आप में अचित्त होते हैं। इनका उपचय वैससिक बन्ध के द्वारा होता है। जब ये जीव द्वारा गृहीत होते हैं, तब फिर इनका परिणमन शरीर आदि के रूप में होता है । इस आधार पर यह स्पष्ट होता है कि तैजस वर्गणा के पुद्गल और तैजस शरीर के रूप में परिणत पुद्गल भिन्न हैं। विद्युत या इलेक्ट्रीसीटी अपने आप में पौद्गलिक परिणमन है। जब जीव द्वारा इन पुद्गलों का ग्रहण होता है तब ये तेउकायिक जीव के शरीर बन सकते हैं, इससे पूर्व तो वे अचित्त पुद्गल ही हैं। जीवों के स्थूल शरीर (औदारिक, वैक्रिय) तथा सूक्ष्म शरीर के रूप में 'बद्ध' एवं 'मुक्त' पुद्गलों के परिणमन से व्यवहार- जगत् के सभी पदार्थों का परिणमन सम्बन्धित है।" विश्व के परिणमनों को तीन भागों में बांटा गया है. - 1. वैस्रसिक, 2. प्रायोगिक, 3. मिस्र । 17 वैसिक परिणमन केवल पुद्गलों के वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान (आकार) के परिणमन के कारण होते हैं, 18 जीव के प्रयत्नों से होने वाले परिणमन 'प्रायोगिक' की कोटि में है" तथा जीव और पुद्गल दोनों के संयुक्त योग से होने वाले परिणमन मिस्र कहलाते हैं । पुद्गल की पर्यायों में शब्द, बन्ध, सौक्ष्म्य, स्थौल्य, संस्थान, भेद, तमस् (अंधकार), छाया, आतप ( सूर्य का प्रकाश), उद्योत ( चंद्र का प्रकाश), प्रभा (मणि आदि का प्रकाश) आदि का समावेश किया गया है। इस प्रकार स्पर्श आदि गुणों एवं शब्द आदि पर्याय पौद्गलिक जगत् की सभी घटनाओं के लिए जिम्मेदार हैं । जीव की उत्पत्ति (जन्म) में भी पौद्गलिक परिणमनों से निर्मित योनियां निमित्तभूत बनती हैं। जैन दर्शन में – शीत, उष्ण, शीतोष्ण, संवृत्त, विवृत्त, संवृत्त - विवृत्त, सचित्त, अचित्त, सचित्त- अचित्त - ये नौ प्रकार की योनियों का उल्लेख प्राप्त है । 22 इस प्रकार अचित्त पौद्गलिक - तुलसी प्रज्ञा अंक 120-121 44 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524615
Book TitleTulsi Prajna 2003 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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