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________________ 4. किसी भी तत्त्व-निर्णय का उद्देश्य सुविधा-असुविधा, प्रचार-प्रसार में उपयोगिता, आधुनिकता का व्यामोह आदि नहीं होना चाहिए। इसी प्रकार केवल परम्परा का आग्रह भी न हो। तत्त्व-निर्णय के पश्चात् क्या करना, क्या न करना- ये बातें द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षाओं के साथ जुड़नी चाहिए, न कि नवीन-पुरातन आदि पर। 5. जिन विषयों में आगम न साधक है, न बाधक, उनके संबंध में बुद्धि, तर्क और विज्ञान के माध्यम से संगत यथार्थ के विषय में विचार करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। इन मूलभूत आधारों पर विद्युत् यानी इलेक्ट्रीसिटी अपने आप में सचित्त तेउकाय है या अचित्त पुद्गल ---- इस विषय की चर्चा को प्रस्तुत करना, इस लेखन का उद्देश्य है। अब तक जो विचार इस विषय में प्रस्तुत हुए हैं, उनकी समीक्षा करने से पूर्व कुछेक मूलभूत बातें जो जैन आगमों, जैन ग्रन्थों और जैन परम्परा में उपलब्ध हैं, उन पर तथा वैज्ञानिक अवधारणाएँ जिन्हें स्पष्ट समझना जरूरी है, उन पर प्रकाश डालना अपेक्षित है। 1.0 जैन दर्शन में पुद्गल जैन दर्शन में पुद्गल (अथवा पुद्गलास्तिकाय) छह द्रव्यों में एक द्रव्य है, जो अपने आप में अजीव है (जिसे अचित्त भी कहते हैं)। पुद्गल की परिभाषा है-स्पर्श-रस-गंधवर्णवान् पुद्गलः। स्पर्श, रस, गंध और वर्णयुक्त द्रव्य पुद्गल है। ये चारों पुद्गल के लक्षण हैं। इनमें स्पर्श के आठ भेद हैं ---स्निग्ध-रूक्ष, शीत-उष्ण, गुरु-लघु, मृदु-कठोर। इनमें से स्निग्ध-रूक्ष तथा शीत-उष्ण – ये चार स्पर्श मूल हैं और शेष चार स्पर्श उत्तर हैं। चतुःस्पर्शी स्कन्धों में चार मूल स्पर्श होते हैं, अष्टस्पर्शी स्कन्धों में आठों स्पर्श हैं। स्वतंत्र परमाणु में स्निग्ध और रूक्ष में से एक तथा शीत और उष्ण में से एक-ऐसे दो स्पर्श ही होते हैं। प्रस्तुत विषय की विचारणा में स्निग्ध और रूक्ष का अधिक महत्त्व है। स्निग्ध और रूक्ष का शाब्दिक अर्थ 'चिकना' और 'रूखा' होता है पर परमाणुओं के परस्पर बन्ध और स्कन्ध-निर्माण के सन्दर्भ में इसका अर्थ क्या होना चाहिए, इस पर विद्वानों ने चिन्तन किया है। सवार्थसिद्धि में इसकी शाब्दिक व्याख्या की गई है। प्रज्ञापना सूत्र में स्निग्धत्व-रूक्षत्व को स्कन्ध-निर्माण का हेतु मानते हुए उसके नियम बताए गये हैं।' गोम्मटसार में भी यही बताया गया है। तत्त्वार्थ सूत्र' में "स्निग्धरूक्षत्वाद् बन्धः" सूत्र द्वारा इसी को बताया गया है। तत्त्वार्थ सूत्र की टीका सर्वार्थसिद्धि इसकी व्याख्या में "स्निग्धरूक्षत्वगुणनिमित्तो विद्युत्" अर्थात् (बादलों के बीच चमकने वाली) विद्युत् स्निग्ध और रूक्ष गुणों के निमित्त से होती है, ऐसा बताया गया है। वर्तमान विज्ञान के अनुसार इसका निमित्त है -- बादलों में विद्यमान धन विद्युत् आवेश और ऋण विद्युत् आवेश। इस आधार पर स्निग्ध और रूक्ष को पोजीटीव और नेगेटीव इलेक्ट्रीक चार्ज के रूप में समझा जा सकता है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ने धवला के आधार पर विद्युत्करण को “Protons and Electrons” के रूप में बताया है। इस विवेचन से स्पष्ट होता है कि सभी पुद्गल-स्कन्ध एवं पुद्गल-परमाणु में स्निग्ध अथवा रूक्ष 42 __ तुलसी प्रज्ञा अंक 120-121 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524615
Book TitleTulsi Prajna 2003 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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