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________________ हैं । आवश्यकता व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों की है, जिनका प्रतिशत अत्यन्त न्यून है। उच्चशिक्षा की इस प्रवाहपातिता से भी छुटकारा पाना होगा। सामान्य शिक्षा के नये संबोध की आवश्यकता समाज व राष्ट्र के आर्थिक एवं उत्पादनात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति के अतिरिक्त व्यक्तित्व विकास की सामान्य शिक्षा का भी कोई न कोई संप्रत्यय शिक्षा के सभी स्तरों पर आवश्यक है। नये मूल्यों की भी अपेक्षा है, जो नई प्रौद्योगिकी की तरह प्रत्यक्ष तो नहीं है, पर वस्तुत: बहुत महत्त्व के हैं। आज वैज्ञानिकों, प्रौद्योगिकी विशेषज्ञों के लिए सामान्य सांस्कृतिक शिक्षा की माँग प्रखर हो गई है तथा अतिशय विशेषज्ञता की निंदा भी हो चली है। उच्च शिक्षा के समक्ष इस मुद्दे पर एक कठिनाई भी है- समाज में इस बिन्दु पर मतवैभिन्य है कि सुशिक्षित व्यक्ति का क्या स्वरूप होना चाहिए? जीवनयापन हेतु जो आवश्यकताएँ हैं क्या शिक्षा उन्हीं की पूर्ति करे या कुछ प्राचीन सांस्कृतिक या उदारवादी शिक्षा भी उन्हें दी जाए? प्राचीन सांस्कृतिक शिक्षा हमें समाज के प्रति उत्तरदायित्व को सिखाती है। प्रजातांत्रिक युग में लोगों को अपने दायित्वों के प्रति सजग होना ही चाहिए। वे यह भी जानें कि हमारे चारों ओर के विश्व में क्या हो रहा है, ताकि वे विवकपूर्ण निर्णय ले सकें अर्थात् विशेषज्ञता वाले अपने कार्यक्षेत्र के संकुचित दायरे से बाहर निकलकर वे उस विश्व के प्रति भी सचेत बनें जिसमें हम रहते हैं। इतना ही नहीं स्वयं के जीवन को मनोरम, रुचिकर और आनन्दमय बनाने के लिए हमें कला विषयक सृजनात्मक अध्ययन करना ही चाहिए। जिस शिक्षा से हमारी आत्माभिव्यक्ति बढ़ती है, भावात्मक अनुभूतियाँ मिलती हैं एवं कल्पना को खुला आकाश मिलता है, उन सभी के शिक्षण की आवश्यकता है। इससे न केवल सृजनात्मक शक्तियों का विकास होगा बल्कि उत्तरदायित्व का भाव विकसित होगा। यदि सामान्य शिक्षा के ऐसे किसी संप्रत्यय का विकास नहीं हुआ तो हमारे समाज के उच्चस्तरीय पद संकुचित विशेषता से भर जायेंगे जो स्वयं अकुशलता और असंतोष का कारण बनेंगे। ऐसी दशा में ये विशेषज्ञ एकदूसरे के कार्य एवं दृष्टिकोण को सम्यक्रूपेण नहीं समझ पायेंगे जबकि आवश्यकता होगी प्रौद्योगिकी समाज में मानवता के संरक्षण की । उच्च शिक्षा इस परिवर्तित सामाजिक ढांचे की आवश्यकताओं के लिए उत्तरदायी तो है ही, साथ ही यह विशेषता वाले व्यक्ति के सामाजीकरण के लिए भी उत्तरदायी है। व्यक्ति कौशल प्राप्त करें अर्थात् ज्ञान के कुछ क्षेत्रों में विशेषज्ञ हों लेकिन वे समान सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सामान्य शिक्षा का संबोध भी ग्रहण करें। विज्ञान और मानविकी की शिक्षा साथ-साथ हो तभी संतुलित व्यक्तित्व का निर्माण होगा, अन्यथा हम यांत्रिक हो जायेंगे तथा जटिल जीवन की माँगों की पूर्ति न कर पाने के कारण 'सत्यम् शिवम् सुन्दरम्' के आदर्श तक पहुँचना कठिन होगा। वस्तुतः आज ऐसे व्यक्तियों की अपेक्षा है जो तुलसी प्रज्ञा अप्रेल-सितम्बर, 2003 - 25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524615
Book TitleTulsi Prajna 2003 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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