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समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः। शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः॥ तुल्पनिन्दास्तुतिर्मोनी सन्तुष्टो येन केनचित्। अनिकेतः स्थिरमतिः भक्तिमान् मे प्रियो नरः॥4
वहाँ गीता और उत्तराध्ययन की भाषा तथा भाव दोनों समान रूप से एक ही तथ्य को प्रकाशित कर रहे हैं।
जो अविवेकी संसारी प्राणी हैं, वे स्व-पर भेद में आकण्ठ मग्न होकर कहते हैं कि - इमं च मे अत्थि इमं च नत्थि, इमं च मे किच्च इमं अकिच्चं। त एवमेवं लालप्पमाणं, हरा हरेन्ति त्ति कहं पमाए॥
यह मेरा है. यह मेरा नहीं है। यह मेरा कृत्य है, यह कृत्य नहीं है, इस रूप से कहते हुए मनुष्य काल के गर्त में समा जाते हैं। इसी की समानार्थक बात गीता में कही गयी है
इदमद्य मयालब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम।
इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्॥ इस प्रकार कहने वाले जागतिक विषयाक्रान्त मनुष्य कभी सुख-शान्ति प्राप्त नहीं कर सकते। उनका जन्म-मरण का चक्र बराबर चलता ही रहता है। उत्तराध्ययन का प्रारम्भ विनय के द्वारा हुआ है। गुरु की आज्ञा और निर्देश का पालन करते हुए गुरु की शुश्रूषा करने वाला व्यक्ति ही ज्ञानोपलब्धि पुरःसर आत्मकल्याण करता है। गीता में भी यही बात कही गई है कि
"श्रद्धावान् लभते ज्ञानं तत्परं संयतेन्द्रियः।" संयतेन्द्रिय श्रद्धावान् व्यक्ति ही ज्ञान प्राप्त कर सकता है। ज्ञान ही अज्ञान को मिटाने का साधन है। अज्ञान की निवृत्ति ही मुक्ति है। इस प्रकार उत्तराध्ययन और गीता अपवर्ग के साधक प्रमुख ग्रन्थ रत्न है, इसमें सन्देह नहीं है।
सन्दर्भ : 1. उत्तराध्ययन, 3/7 6. वही, 3/5
11. वही 6/11 2. गीता, 6/41-42 7. उत्तराध्ययन, 12/23 12. वही 2/14, 5/22 3. उत्तराध्ययन, 23/63 8. उत्तराध्ययन, 14/12, 14/16 13. उत्तराध्ययन, 19/90, गीता, 13/18 4. गीता, 14/259. उत्तराध्ययन
14. गीता, 13/14 5. वही, 18/73 10. गीता 6/5-6
15. उत्तराध्ययन, 14/15
आचार्य, ब्राह्मी विद्यापीठ लाडनूं - 341306 (राजस्थान)
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तुलसी प्रज्ञा अंक 119
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