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________________ मेरी आत्मा ही वैतरणी नदी है और आत्मा ही कूट शाल्मली (कांटेदार) वृक्ष है। आत्मा ही कामदुध धेनू है और आत्मा ही नन्दन वन है। आत्मा ही दुःख-सुख की करने वाली है। सम्प्रवृत्ति में लगी आत्मा मित्र है और दुष्प्रवृत्ति में लगी आत्मा शत्रु है। इस वचन के द्वारा यह बताया गया कि अच्छे और बुरे कर्मों का कर्ता और उनका फल भोक्ता आत्मा स्वयं है। इसका कर्तृत्व स्वतन्त्र है। आवश्यकता इस बात की है कि यह सत्प्रवृत्ति में प्रवृत्त रहे और अपनी ऊर्ध्वगति का सम्पादन करे। गीता में कहा गया है उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्। आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥ बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः। अनात्मवस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्॥० संसार सागर से अपना उद्धार स्वयं करता है। यह मनुष्य अपना ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है। जिस जीवत्मा ने मन और इन्द्रियों सहित शरीर को जीत लिया, उस जीवात्मा का तो वह मित्र है और जिसने नहीं जीता वह आप ही शत्रु के समान है। यहाँ आत्मा के कर्तृत्व और भोक्तत्व के सम्बन्ध में दोनों जगह एक ही बात कही गयी है। आसक्ति दुःख का कारण है। इसलिये आवश्यक है कि अनासक्त होकर कर्म किया जाए। इस बात को उत्तराध्ययन और गीता में समान रूप से कहा गया है जे केई सरीरे सत्ता, वण्णे रूवे य सव्वसो। मणसा कायवक्केणं, सव्वे ते दुक्खसंभवा॥1 गीता कहती है 12 - मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः। आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्वभारत। ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते। आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः॥ इन्द्रिय और विषय के सम्पर्कजन्य जो भोग हैं वे तो दुःख के ही कारण हैं । इसलिए बुद्धिमान् लोग इसमें रमण नहीं करते हैं। आत्मकल्याण के इच्छुक व्यक्ति की स्थिति कैसी होनी चाहिये। इस विषय में उत्तराध्ययन और गीता की समानता द्रष्टव्य है 13 - लाभालाभे सुहे दुक्खे जीविये मरणे तहा। समो निन्दा पसंसासु तहा माणावमाणओ॥ तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2003 Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524614
Book TitleTulsi Prajna 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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