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गीता में कर्मवाद का विवेचन बड़े विस्तार से किया गया है। वहाँ शुभ कर्मों का फल शुभ और अशुभ कर्मों का फल अशुभ बताया गया है । "
न तस्स दुःखं विभयंति नाइओ । नमित्त वग्गा न सुया न बंधवा । एक्को सयं पच्चणुहोइ दुक्खं कत्तारमेवं अणुजाइ कम्म ॥7
इस प्रकार सात्विक, राजस और तमस रूप से कर्म का विवेचन करके गीता में उनका फल क्रमशः ऊर्ध्व, मध्य और अधोगति को बताया गया है। यह कर्मफल स्वयं को मिलता है, जैसा कि उत्तराध्ययन में भी कहा गया है।
कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्विकं निर्मलं फलम् । सत्वात् सञ्जायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च ॥ प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च ॥ ऊर्ध्वगच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः । जघन्य गुणवृत्तिस्था अधोगच्छन्ति तामसाः ॥
कर्म का फल कैसे मिलता है ? कौन फल को देता है ? इस बात में गीता और जैनदर्शन का मतभेद है। जैनदर्शन के अनुसार कर्म अपना फल स्वयं देते हैं । उसके लिए किसी नियामक की आवश्यकता नहीं मानी गई है। गीता में कहा गया है
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
जीव को कर्म करने में तो अधिकार है किन्तु फल में उसका अधिकार नहीं है । अन्तःकरणावच्छिन्न चेतन अल्पज्ञ अल्पशक्तिमत्व होने के कारण कर्म के फल और उसके प्रकार तथा अवधि की जानकारी नहीं रखता। इसलिए कर्मफलदायक के रूप में सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान् ईश्वर की अपेक्षा स्वीकृत है। वही कर्म का फल देता है ।
कर्म स्वयं फल देते हैं। यह बात इसलिए मनोग्राह्य नहीं होती है, क्योंकि कर्म जड़ हैं । उन्हें अपना और अपने फल का पता ही नहीं होता है। यदि कर्म को चेतन मान लिया जाता है तो नाम मात्र का मतभेद रह जाता है। गीता और उत्तराध्ययन की एकता ही हो जाती है ।
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इस भीषण भवाटवी में अन्तहीन चंक्रमण करता हुआ यह जीव कब इस भवार्णव को पार करेगा ? यह सुख-दुःख का भोक्ता कब तक रहेगा ? इन प्रश्नों का उत्तर गीता तथा उत्तराध्ययन में समान रूप से ही दिया गया है।
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अप्पा ई वेयरणी, अप्पा मे कूडसामली। अप्पा कामदुहाणू, अप्पा मे नंदणं वणं ॥ अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्ठियसुप्पट्ठियो ।
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तुलसी प्रज्ञा अंक 119
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