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________________ जलों की महत्ता एवं संरक्षण वैदिक अवधारणा -डॉ. नन्दिता सिंघवी सृष्टि के प्रारम्भ में केवल जल ही सर्वत्र व्याप्त था-अप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम् । सृष्टि के प्रारम्भ में विद्यमान आपस् ने सर्वप्रथम विश्व का संरक्षण किया। आपके भीतर यह ब्रह्माण्ड स्थित है, इसलिए उसे आपः का गर्भ कहा गया है' - आपे अग्रे विश्वमावन् गर्भ दधाना अमृताः ऋतज्ञा। आपस् सृष्टि के निर्माण में महत्त्पूर्ण सहायक शक्ति है, अत: ब्रह्म रूप है -"महद् ब्रह्म" । जलों में सभी देवता प्रविष्ट हैं - प्रविष्टाः देवा सलिलान्यासन् । जलों में सब देवों का निवास हैं, अतः कहा गया हैं - आपो वै सर्वा देवताः। इस प्रकार जल इस सृष्टि के संरक्षक, ब्रह्मरूप एवं देवरूप है। जलों के कारण प्राणी जगत का जीवन सम्भव है। अथर्ववेद में ऋषि ब्रह्मा ने जल को 'जीवा', "उपजीवा", "संजीवा", और जीवला "स्वीकार कर बार-बार सर्वमायुर्जीव्यासम्" कहकर जीवन के लिए इनकी अमूल्य महत्ता प्रतिपादित की है। जलों की अतिशय महत्ता के कारण ही "आपः" की स्तुति से अथर्ववेद (पैप्लाद संहिता) का आरम्भ होता है। डॉ. निगम शर्मा ने "ऋग्वेद वारि" पुस्तक में जल के लिए चार सौ पच्चीस नामों की सूची दी है जिससे सिद्ध होता है कि जल अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। विश्व की किसी अन्य भाषा में जल के लिए इतने पर्यायावाची शब्द उपलब्ध नहीं होते। यास्क मुनि (11.43) का मत है कि उदक वा पय सब में श्रेष्ठ है। चराचर जगत् के लिए जलों की महत्ता के विषय में अनेक प्रकार के व्रत और मन वाले सभी प्राणी एकमत हैं - नानामनसः खलु वै पशवो नानावतास्तेऽप एवाभिमनसः।' । तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2003 - 65 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524614
Book TitleTulsi Prajna 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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