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________________ कहेगा? संघ रूपी कल्पवृक्ष की छांव में रहने वाला निश्चिन्तता की नींद सो सकता है, क्योंकि आचार्य स्वयं संघ के प्रत्येक सदस्य के योगक्षेम की चिन्ता करते हैं। वे सबकी चित्तसमाधि और मनःप्रसत्ति में योग देकर विपुल कर्म निर्जरा करते हैं। ___ संघीय साधना के सन्दर्भ में सेवा के महत्त्व को रेखांकित करते हुए भाष्यकार ने चार कारणों का उल्लेख किया है - लोगविरुद्धं दुप्परिचओ उ कयपडिकिई जिणाणा य। अतरंतकारणेते तदट्ठ ते चेव विजम्मि॥ 1. जिस संघ में तपस्वी, बाल, वृद्ध, ग्लान आदि की सेवा नहीं होती, वह संघ लोकापवाद का पात्र बनता है। किसी को असहाय अवस्था में तड़पते देख लोग परस्पर चर्चा करते हैं—धिक्कार है ऐसे धर्म को जो अपने अंगभूत सदस्यों की उपेक्षा करता है। धिक्कार है ऐसे संघ को जहां व्यक्ति को अशक्य अवस्था में अनाथ छोड़ दिया जाता है। क्या ऐसा व्यवहार करना धर्म और न्याय के खिलाफ नहीं है? क्या ऐसा अमानवीय व्यवहार धर्म के क्षेत्र में शोभा देता है ? इस प्रकार ग्लान आदि की उपेक्षा करने वाला संघ चारों ओर से अहवेलना को प्राप्त करता है। 2. एक शासन में दीक्षित होने वालों का सम्बन्ध लोकोत्तरिक होता है। परिणामस्वरूप वह अपरिहार्य होता है। लौकिक संबंधों के धागे से बन्धे लोग भी अपने साधर्मिक बंधु को हर स्थिति में सहारा देते हैं। साधुओं का संबंध आत्मा की पवित्रता पर आधारित होने से लोकोत्तर होता है। इसलिए संघ में रहने वालों को कभी किसी की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। 3. संघ में दीक्षित होने वाला जब तक समर्थ रहता है, संघ को अपनी सेवाएँ प्रदान करता है। जो आज वृद्ध अथवा ग्लान है, उसने अतीत में सेवा कर संघ का सुयश बढ़ाया है। आज उसे अपेक्षा है तो उसकी उपेक्षा क्यों? प्रत्युपकार का दुर्लभ अवसर मान उसकी अग्लान-भाव से वैयावृत्त्य करनी चाहिए अथवा जो आज ग्लान है, वह जब स्वस्थ हो जाएगा, संघ को अहोभाव के साथ अपनी सेवाएँ देगा, अपनी नि:स्पृह सेवाभावना से शासन की श्रीवृद्धि करेगा। अतः ग्लान, तपस्वी आदि की कभी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। 8. 'ग्लानस्य अग्लान्या वैयावृत्त्यं कुर्यात्'- ग्लान की अग्लान-भाव से सेवा करें-- यह तीर्थंकरों की आज्ञा है । वैयावृत्त्य करने वाला तीर्थंकरों की आज्ञा की अनुपालना करता है। जो ग्लान आदि की उपेक्षा करता है वह प्रायश्चित्त का पात्र और आज्ञा का विराधक बनता है। इन सारे कारणों को दृष्टिगत रखते हुए जो ग्लान आदि की सेवा करता है वह आत्मगुणों का संवर्धन और तीर्थ की महान् प्रभावना करता है। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2003 - 53 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524614
Book TitleTulsi Prajna 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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