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________________ निशीथ चूर्णि में चूर्णिकार ने वैयावृत्त्य की भिन्न ढंग से व्याख्या की है। उनके अनुसार व्यक्ति द्रव्यतः एवं भावतः अपना व दूसरों का जो भी उपकार करता है, वह सारा वैयावृत्त्य है। वहां वैयावृत्त्य के तीन अन्य प्रकारों का निर्देश है 1. अनुशिष्टि, 2. उपालम्भ और 3. उपग्रह । 1. अनुशिष्टि – किसी को उपदेश देना अथवा किसी की प्रशंसा कर उसे आगे बढ़ाना अनुशासन है। अनुशासन स्वयं पर होता है, अनुशासन दूसरों पर होता है और दूसरों के द्वारा भी होता है। अनुशासन करने वाला सामने वाले का उपकार करता है, उसका हितवर्धन करता है। इस दृष्टि से अनुशासन को ही वैयावृत्त्य का एक प्रकार माना जा सकता है। 2. उपालम्भ- - अनाचार - आसेवन के कारण दी जाने वाली प्रेरणा उपालम्भ है। उपालम्भ देने वाला आसेवी पुरुष को दोषमार्ग से निवृत्त कर करणीय की दिशा में प्रेरित करता है। इस दृष्टि से उपालम्भ भी उपकार है, फलतः वैयावृत्त्य का एक प्रकार है । चूर्णिकार ने प्रस्तुत सन्दर्भ में आर्या मृगावती का उदाहरण दिया है। प्रवर्तिनी चन्दनबाला ने आर्या मृगावती को उपालम्भ दिया । वही उपालम्भ उसके आत्मचिन्तन में निमित्त बना । परिणाम- धारा निर्मल-निर्मलतर होती चली गई। सारे बंधन टूट गए। जीवन कैवल्य के आलोक से जगमगा उठा । 3. उपग्रह -उपग्रह का अर्थ है- उपकार । यह द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार IT है । किसी असमर्थ को अशन, पानी आदि लाकर देना द्रव्यतः उपग्रह है। एक आचार्य या बहुश्रुत अपने शिष्य समुदाय को सूत्रार्थ की वाचना देता है, वह भावतः उपग्रह है । चूर्णिकार लान की सेवा को भावतः उपग्रह माना है । ग्लान की सेवा शुश्रूषा करने वाला शारीरिक और मानसिक दोनों दृष्टियों से अनुकूलता पैदा करता है । अतः वह भावतः उपग्रह है।" संघीय साधना और वैयावृत्त्य - - - साधना की दो पद्धतियां हैं - जिनकल्प और स्थविरकल्प | जिनकल्प की साधना स्वीकार करने वाले उत्कृष्ट संहनन वाले होते हैं । उनका संकल्प और धैर्य वज्र की दीवार की भाँति अभेद्य होता है। वे परिकर्म से सर्वथा मुक्त रहते हुए एकाकी विहरण करते हैं । वे न दूसरों को सहयोग देते हैं और न दूसरों से सेवा और सहयोग स्वीकार करते हैं । स्थविरकल्प की साधना संघबद्ध साधना है। संघ में रहकर साधना करने वालों को संघ त्राण देता है । इसीलिए संघ को आश्वास, विश्वास, प्रतिष्ठा और आधार माना गया है। संगठन की सुदृढ़ता का एक बड़ा आधार है – सेवा । संघीय साधना में सेवा और सहयोग का महत्त्व और बढ़ जाता है। संघ की शरण लेने वाले को कभी यह चिन्ता नहीं करनी पड़ती कि बीमारी की अवस्था में मेरी सेवा - शुश्रूषा कौन करेगा ? मुझे आहार, औषध आदि लाकर कौन देगा? बुढ़ापे में सहारा कौन बनेगा ? कौन मुझे सहानुभूति के दो शब्द तुलसी प्रज्ञा अंक 119 52 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524614
Book TitleTulsi Prajna 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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