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________________ जो मुनि ग्लान के बारे में सुनकर तत्काल उसकी सेवा में उपस्थित नहीं होता अथवा उसकी उपेक्षा करता है, वह प्रायश्चित्त का भागी बनता है। आचार्य, स्थविर आदि भी उसे उपालम्भ देते हैं। वहां यह भी निर्देश है कि मुनि ग्लान आदि के प्रायोग्य द्रव्य की उपलब्धि हेतु पूरे ग्राम में परिभ्रमण करे। यदि ग्राम में अभीप्सित द्रव्य उपलब्ध न हो तो ग्रामान्तर से लाए किन्तु ग्लान की उपेक्षा न करें। इस प्रकार बृहत्कल्प भाष्य में ग्लान आदि की सेवा के परिप्रेक्ष्य में विस्तार से विवेचन किया गया है।" स्थिरीकरण और साधर्मिक वात्सल्य का एक अमोघ उपक्रम है--वैयावृत्त्य। वैयावृत्त्य के प्रकार वैयावृत्त्य के दस प्रकार हैं। वैयावृत्त्य के दस प्रकार सेवा लेने की पात्रता के आधार पर किए गए हैं। वे इस प्रकार हैं1. आचार्य का वैयावृत्त्य 2. उपाध्याय का वैयावृत्त्य 3. स्थविर का वैयावृत्त्य 4. तपस्वी का वैयावृत्त्य 5. ग्लान का वैयावृत्त्य 6. शैक्ष का वैयावृत्त्य 7. कुल का वैयावृत्त्य 8. गण का वैयावृत्त्य 9. संघ का वैयावृत्त्य 10. साधर्मिक का वैयावृत्त्य वैयावृत्त्य का उक्त वर्गीकरण स्थानांग सूत्र में उपलब्ध होता है।12 औपपातिक और व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र में भी ये ही दसों प्रकार हैं किन्तु वहाँ क्रम की कुछ भिन्नता है। तत्त्वार्थ सूत्र में वैयावृत्त्य के दस प्रकारों में स्थविर और साधर्मिक- ये दोनों नहीं हैं। वहां इसके स्थान पर साधु और समनोज्ञ- इन दोनों का उल्लेख है। वैयावृत्त्य के उपर्युक्त प्रकारों में आचार्य, उपाध्याय आदि की वैयावृत्त्य का उल्लेख है किन्तु तीर्थंकर की वैयावृत्त्य का कोई उल्लेख नहीं है। प्रश्न हुआ- क्या तीर्थंकरों की वैयावृत्त्य नहीं करनी चाहिए? क्या तीर्थंकरों की सेवा से कर्मनिर्जरा नहीं होती? इस प्रश्न के समाधान में भाष्यकार ने कहा- वैयावृत्त्य के दस भेदों में 'आचार्य' का निर्देश है। वहां आचार्य पद प्रतीकात्मक है। आचार्य के ग्रहण से तीर्थंकर का ग्रहण स्वतः हो जाता है। इसके अतिरिक्त यदि हम शाब्दिक दृष्टि से विचार करें तो आचार्य वह कहलाता है जो स्वयं आचार का पालन करता है तथा दूसरों को आचार की अनुपालना के लिए अभिप्रेरित करता है। इस दृष्टि से तीर्थंकर को भी आचार्य कहा जा सकता है। भगवती सूत्र में तीर्थंकर के लिए धर्माचार्य पद प्रयुक्त हुआ है। स्कन्दक ने गौतम गणधर से पूछा-भंते। आपको यह अनुशासन किसने दिया? उस समय गौतम ने प्रत्युत्तर में यही कहा -'धम्मायरिएण' अर्थात् धर्माचार्य ने। वहां धर्माचार्य पद मूलतः तीर्थंकर का ही वाचक है। वैयावृत्त्य के दसों ही भेद संयत मनुष्य के विभिन्न पदों व अवस्थाओं से संबद्ध हैं। तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2003 - _ _ 51 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524614
Book TitleTulsi Prajna 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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