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है। जहाँ आगम साहित्य में बीजरूप सूत्रशैली में कथाओं का निर्देश "वण्णओ" या नाम आदि के उल्लेख मात्र से कर दिया जाता था, वह व्याख्या साहित्य में वर्णनों की सजीवता से अनुप्राणित होकर विषय, उद्देश्य, वातावरण, पात्र, रूपगठन आदि के नवीनतम प्रयोगों सहित अभिव्यंजित किया जाने लगा था। व्याख्या साहित्य में वर्णित इन कथाओं का रूप श्रमणपरम्परा से प्रभावित तो था ही, साथ ही ऐतिहासिक, अर्धेतिहासिक, धार्मिक, लौकिक आदि तत्त्वों को भी विवेचित करने वाला था। नियुक्ति साहित्य की भाँति व्यवहारभाष्य, बृहत्कल्पभाष्य, दशवैकालिक चूर्णि, निशीथचूर्णि, सूत्रकृतांग चूर्णि, उत्तराध्ययन की सुखबोधा टीका आदि प्रमुख व्याख्या ग्रंथ हैं जिनमें प्राकृत कथाएँ प्राप्त होती हैं। अत: उद्गम स्थल आगम साहित्य से कथा सरिता प्रवाहित होकर अपने कुछ-कुछ आकार को पाने लगी थी।
3. प्राकृत कथा साहित्य के बीजरूप मूलस्रोत का तीसरा बिन्दु है— लोक जीवन। मानव जाति की आदिम परम्पराओं, प्रथाओं और उसके विभिन्न प्रकार के विश्वासों का लोक जीवन में विशेष महत्त्व है। अत: कथाओं में लोकमानव की सहज और स्वाभाविक अभिव्यक्ति का रहना आवश्यक है। यही कारण है कि कथाओं में लोक जीवन और वहाँ की संस्कृति का वास्तविक प्रतिबिम्ब पड़ता है। कथाएँ लोक-चित्त से सीधे उत्पन्न होकर सर्वसाधारण को आन्दोलित, चालित और प्रभावित करती हैं, क्योंकि कथाकार जो कहता-सुनता है, उसे लोक जीवन की वाणी बनाकर और उसमें घुल-मिलकर ही कहता-सुनता है। वह कथा के विषय का चुनाव भी लोक जीवन के किसी विशेष पक्ष से करता है। अत: जनमानस के जीवन के चित्रण में ही लोक धर्म का चित्रण होता है जो प्राकृत कथा साहित्य का मूलस्रोत कहा जा सकता है।
प्राकृत कथा साहित्य के बीजरूप उक्त तीनों मूलस्रोतों में यह आवश्यक है कि लिखित रूप में आगम साहित्य ही प्रथम आधार है किन्तु लोक जीवन के प्रत्येक पक्ष, घटनाएँ, प्रसंग आदि भी श्रमणों को सहजता से कथा के आधार मिलते रहे, जिनके प्रयोगों से जनमानस भलीभाँति परिचित और प्रभावित हो जाते थे। स्वरूप एवं भेद :
कथा या कहानी कवि के चित्त से उद्भूत अपनी सुनियोजित भावनाओं की अभिव्यक्ति है। चाहे कथा हो अथवा काव्य, दोनों की उत्पत्ति उपमान, रूपक और प्रतीकों द्वारा होती है। सिद्धान्तों अथवा तत्त्वों को इन तीनों की कसौटी पर कसकर जब उद्धरण सहित प्रस्तुत किया जाता है तब वे कथा का रूप ले लेते हैं। कथा के माध्यम से जिन उद्धरणों का प्रयोग रचनाकार करता है वे उपमान, रूपक एवं प्रतीक की त्रयी से सम्बन्धित होते हैं। इसीलिए अमरकोशकार ने "प्रबन्धकल्पना कथा" कहकर स्पष्ट किया है कि प्रबन्ध रूप में कल्पित रचना को कथा कहा गया है अर्थात् वह रचना जिसमें कवि की अपनी कल्पना शक्ति के माध्यम से कथा की संयोजना की गई हो। यद्यपि ऐतिहासिक या पौराणिक विषय होने पर भी
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तुलसी प्रज्ञा अंक 119
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