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कथा की चेतना में अपनी कल्पना शक्ति का विस्तार बखूबी किया जाता है, इसलिए अभिप्राय विशेष से युक्त शब्दों के प्रयोग द्वारा कथा में रोचकता या मनोरंजकता को बढ़ाने वाली रचना कथा कही जाती है।
यह स्पष्ट है कि कथा साहित्य में मानव के वैयक्तिक जीवन व सामाजिक पक्ष को बाह्य एवं आभ्यान्तर क्रियाओं-प्रतिक्रियाओं के विवेचन के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है। विवेचित समस्त क्रियाओं का सम्बन्ध जिन बिन्दुओं से होता है, उन्हें कथा के आवश्यक अंग या तत्त्व कहा जाता है। वे निम्नांकित हैं:1. कथानक (कथासूत्र)
2. पात्र (चरित्र-चित्रण) 3. संवाद (कथोपकथन)
4. देशकाल का चित्रण 5. शैली
6. उद्देश्य किसी भी कथा का कथासूत्र पात्रों के संवादों से आगे बढ़ता है। कथाकार अपने उद्देश्य को लेकर पात्रानुसार सांस्कृतिक एवं भौगोलिक परिवेश में जीवन के उतार-चढ़ाव सहित विभिन्न पक्षों का चित्रण कुशल शैली से करता है, तभी उसकी कथा सफल व पूर्ण कही जाती है। अतः उक्त लक्षण कथाग्रंथों में आवश्यक व अनिवार्य कहे गये हैं।
प्राकृत कथा साहित्य विपुल मात्रा में प्राप्त होता है। जैन आचार्यों, मनीषियों द्वारा लिखे गये कथा ग्रंथों में कथाओं के शिल्प, विषय, पात्र, भाषा, शैली आदि के आधार पर विभिन्न रूपों में भेद-प्रभेद की चर्चा की गई है। दशवैकालिक नियुक्ति, कुवलयमाला कहा, लीलावईकहा, धवला, समराइच्चकहा के अतिरिक्त पउमचरियं, महापुराण आदि ग्रंथों में कथाओं के भेदों का उल्लेख किया गया है। विषय निरूपण की अपेक्षा से कथा के तीन भेद किए जाते हैं -
__ 1. अकथा : मिथ्यात्व के उदय से जिस कथा का निरूपण किया जाये, अकथा कहलाती है। यह संसार के परिभ्रमण को बढ़ाने वाली होती है।
2. कथा : संयम, तप, त्याग आदि के द्वारा स्वयं को परिमार्जित कर लोक-कल्याण की भावना से किए जाने वाली कथा का निरूपण, कथा या सत्कथा है।
3. विकथा : प्रमाद, कषाय, राग-द्वेष, स्त्री आदि की विकृति से युक्त निरूपित कथा-विकथा कही जाती है।
कथा के विषय की अपेक्षा से चार भेद भी किए गए हैं :1. अर्थकथा 2. कामकथा 3. धर्मकथा 4. मिश्रितकथा
विषय को आधार मानकर धवला टीकाकार वीरसेनाचार्य ने धर्मकथा के चार भेदों का निरूपण किया है :
1. आक्षेपणी 2. विक्षेपणी 3. संवेदनी 4. निवेदनी
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2003
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