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________________ प्राकृत कथा साहित्य की प्रारम्भिक पृष्ठभूमि के रूप में यद्यपि संस्कृत साहित्य को मूलस्रोत रूप नहीं होने पर भी अनदेखा नहीं किया जा सकता, क्योंकि वेदों से लेकर ब्राह्मण उपनिषद्, महाभारत आदि के प्रसंगों, संवादों व व्याख्याओं आदि में अनेक ऐसी कथासंयोजनाएँ प्राप्त होती हैं, जो भले ही आज के कथा-साहित्य के स्वरूप की तुलना में स्वतंत्र व भिन्न हों। किन्तु उन्हें कथा, कहानी, उपाख्यान, आख्यान आदि किसी न किसी रूप में परिगणित किया ही जायेगा। डॉ. नेमिचन्द शास्त्री के अनुसार "यह प्राचीनतम रूप ऋग्वेद के यम-यमी, पुरुरवा-उर्वशी, सरमा और पणिगण जैसे लाक्षणिक संवादों, ब्राह्मण के सौपर्णीकाद्रव जैसे रूपात्मक आख्यानों, उपनिषदों के सनत्कुमार-नारद जैसे ब्रह्मर्षियों की भावमूलक आध्यात्मिक व्याख्याओं एवं महाभारत के गंगावतरण, शृंग, नहुष, ययाति, शकुन्तला, नल आदि जैसे उपाख्यानों में उपलब्ध होता है।"2 प्राकृत कथा साहित्य के बीज रूप मूलस्रोत के निम्न तीन बिन्दु मुख्य हैं - 1. आगम साहित्य 2. व्याख्या साहित्य 3. लोक जीवन 1. जैन आगम साहित्य यद्यपि धार्मिक आचार, सिद्धान्त निरूपण, आध्यात्मिक तत्त्वचिन्तन, नीति, कर्त्तव्य-परायण, जैसे विषयों को विवेचित करता है। किन्तु ये सभी विषय कथाओं के माध्यम से प्रस्तुत किए गए हैं। सिद्धान्तों के गूढ़तम रहस्यों तथा गंभीर विषयों की गुत्थियों को सुलझाने के लिए कथाओं का आलम्बन लेकर जन-मानस के अन्तस् तक पहुँचा जा सकता है। क्योंकि कथा के माध्यम से किए गए सिद्धान्त या विषय के विवेचन को पाठक, श्रोता या जनसामान्य यथाशीघ्र ग्रहण कर लेता है। यही कारण है कि हमारे तीर्थंकरों, गणधरों, अन्यान्य आचार्यों ने कथाओं का आधार ग्रहण किया और उसे सार्वजनीन एवं लोकप्रिय बनाने का कार्य भी किया। कथा साहित्य की इसी सार्वजनिक लोकप्रियता के सम्बन्ध में डॉ. जगन्नाथप्रसाद शर्मा कहते हैं कि "साहित्य के माध्यम से डाले जाने वाले जितने प्रभाव हो सकते हैं, वे रचना के इस प्रकार में अच्छी तरह से उपस्थित किये जा सकते हैं। चाहे सिद्धान्त प्रतिपादन अभिप्रेत हो, चाहे चरित्र-चित्रण की सुन्दरता इष्ट हो या किसी घटना का महत्त्वनिरूपण करना हो अथवा किसी वातावरण की सजीवता का उद्घाटन ही लक्ष्य बनाया जाये, क्रिया का वेग अंकित करना हो या मानसिक स्थिति का सूक्ष्म विशेषण करना इष्ट हो-सभी कुछ इसके द्वारा संभव है।" अतएव यह स्पष्ट है कि लोकप्रिय इस विधा का उद्भव वैयक्तिक और सामाजिक जीवन के शोधन और परिमार्जन के लिए आगमिक साहित्य से ही हुआ है। व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञाताधर्मकथा, उवासगदशा, अंतकृद्दशा, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र, तिलोयपण्णत्ति, उत्तराध्ययन आदि आगम ग्रंथ हैं जिनमें कथाओं को सूत्ररूप में उल्लिखित किया गया है। ___ 2. जैन आगम साहित्य के व्याख्या साहित्य में नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि एवं टीका ग्रंथ प्रमुख हैं । इसी व्याख्या साहित्य में प्राकृत कथाओं का बहुत कुछ विकास देखने को मिलता तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2003 । _ 43 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524614
Book TitleTulsi Prajna 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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