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________________ मोह आदि विकारी भावों से कर्म का बन्धन होता है उन भावों को भाव-बन्ध कहते हैं। कर्मपुद्गलों का आत्म प्रदेशों से सम्बन्ध होना द्रव्य बन्ध है। __ भाव बन्ध नोकर्म बन्ध और कर्म बन्ध के भेद से दो प्रकार का है। माता-पिता-पुत्र आदि का स्नेह सम्बन्ध नोकर्म है। जो कर्म बन्ध है उसको पुनर्भविक कर्म बन्ध सन्तति का सद्भाव होने से सादि, सान्त और पूर्णतया नाश न होने से अनादि अनन्त जानना चाहिए क्योंकि बीज और अंकुर के समान इसके प्रादुर्भाव की सन्तान चलती रहती है। कर्म बन्ध के चार भेद भी बताये गये हैं - प्रकृति बन्ध, स्थिति बन्ध, अनुभाग बन्ध और प्रदेश बन्ध। आचार्य सिद्धसेन ने लिखा है कम्मं जोग णिमित्तं बज्झइ बंधट्ठिइ कसायवसा। अपरिणउच्छिण्णेसु य बंधट्टिइ कारणं णत्थि॥6 मन, वचन और शरीर के व्यापार से उत्पन्न आत्मा के प्रदेशों में हलन-चलन रूप योग से कर्म ग्रहण किये जाते हैं तथा क्रोध, अहंकार, माया और लोभ रूप कषाय से बन्ध की स्थिति निर्मित होती है। परन्तु उपशान्त कषाय तथा क्षीण कषाय (ग्यारहवें, बारहवें गुणस्थान में) की अवस्था में कर्मबन्ध की स्थिति का कोई कारण विद्यमान नहीं रहता। बंध सामान्य की अपेक्षा समानता होते हुए भी विशेष की अपेक्षा से इनमें अन्तर है। कषाय के योग से स्थिति और अनुभाग होता है तथा योग से प्रकृति और प्रदेश बन्ध। बंध के एक से लेकर संख्यात तक भेद होते हैं। उनमें सामान्य से कर्म बन्ध एक है। विशेषों की अपेक्षा नहीं होने से सेना और वन के समान। जैसे सैनिक, हाथी, घोड़ा आदि भेदों की विवक्षा न होने से समुदाय की अपेक्षा सेना एक कही जाती है, अशोक, तिलक, बकुल आदि वृक्षों की भेद विवक्षा न होने से सामान्यतया वन एक कहा जाता है, उसी प्रकार भेदों की विवक्षा न करने पर सामान्यतया कर्म बंध एक ही प्रकार का है। उसी प्रकार पुण्य और पाप के भेद से कर्म बन्ध भी दो प्रकार का है। अनादि-सान्त, अनादि-अनन्त और सादि-सान्त के भेद से कर्मबन्ध तीन प्रकार का है। प्रकृति, स्थिति, अनुभव और प्रदेश के भेद से चार प्रकार का है। पृथ्वी आदि छह काय के जीवों के भेद से छह प्रकार का कहा गया है। राग, द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ रूप कारण के भेद से बन्ध सात प्रकार की वृत्ति का भी अनुभव करता है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय-आठ प्रकार के कर्मों के विकल्प संख्यात विकल्प हैं, क्योंकि कर्म शब्दके वाचक शब्द संख्यात ही हैं। विकल्प की अपेक्षा असंख्यात हैं। अनन्तानन्त प्रदेश स्कन्ध के परिणमन विधि की अपेक्षा कर्मबन्ध अनन्त है।” 5-पुण्य तथा पाप कथंचित् सदृश है, कथंचित् असदृश आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है, जैसे सोने से निर्मित बेड़ी हो चाहे लोहे की, दोनों ही तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2003 - 35 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524614
Book TitleTulsi Prajna 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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