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जिस प्रकार पात्र विशेष में रखे गये अनेक रस वाले बीज, पुष्प तथा फलों का मद्य रूप में परिणमन होता है, उसी प्रकार आत्मा में स्थित पुद्गलों का क्रोध, मान, माया, लोभ रूप कषायों तथा मन, वचन, काय के निमित्त से आत्म-प्रदेशों के परिस्पन्दन रूप योग के कारण कर्म रूप परिणमन होता है।
आचार्य महाप्रज्ञ ने लिखा है कि भाव-कर्म द्रव्य-कर्मों को प्रभावित करते हैं और द्रव्य-कर्म भाव-कर्म को प्रभावित करते हैं। दोनों की एक ऐसी सन्धि है कि दोनों एक-दूसरे को जीवनी शक्ति प्रदान कर रहे हैं।
भावकर्म के द्वारा द्रव्यकर्म का आकर्षण हाता है। भावकर्म है-- जैविक रासायनिक प्रक्रिया। जीव में होने वाली रासायनिक प्रक्रिया और द्रव्यकर्म सूक्ष्म शरीर की रासायनिक प्रक्रिया है। एक जैविक है और एक पौद्गलिक। दोनों में सम्बन्ध स्थापित होता है। दोनों प्रकियाएँ एक-दूसरे को प्रभावित करती हैं। जैविक रासायनिक प्रक्रिया के साथ सूक्ष्म शरीर की रासायनिक प्रक्रिया का योग है। सूक्ष्म शरीर की रसायनिक प्रक्रिया के साथ जैविक रासायनिक प्रक्रिया का योग है इसीलिए सम्बन्ध स्थापित होता है। यदि दोनों के सम्बन्ध न हो तो वे एक-दूसरे को प्रभावित नहीं कर सकते। रसायन दो प्रकार के होते हैं - बाहरी रसायन और भीतरी रसायन। दोनों प्रकार के रसायन आदमी के व्यवहार और आचरण को प्रभावित करते हैं। 12
कर्म की दृष्टि से भाव और द्रव्य कर्म समान हैं परन्तु भावकर्म कथञ्चित् आत्मिक हैं और द्रव्य कर्म कथञ्चित् पौद्गलिक। इनमें कार्य-कारण भाव है। भावकर्म द्रव्यकर्म का कारण है और द्रव्यकर्म भावकर्म का कारण है।
4. कर्मबन्ध में एकानेकात्मकता-कर्म के परमाणु अपने आप व्यक्ति के साथ सम्बन्ध स्थापित नहीं करते। जीव अपनी प्रवृत्ति के द्वारा कर्म परमाणु स्कन्धों को आकर्षित करता है, अपने साथ सम्बन्ध स्थापित करता है और वह सम्बन्ध बहुत गहरा हो जाता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है
जीवपरिणामहे, कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति।
पुग्गलकम्मणिमितं तहेव जीवो वि परिणमइ॥13 जीव मिथ्यात्व आदि परिणामों का निमित्त पाकर पुद्गलों का कर्मरूप परिणमन करता है और पुद्गल कर्म के निमित्त से जीव भी मिथ्यात्व आदि रूप परिणमता है।
'तत्त्वार्थसत्र' में बंध को परिभाषित करते हुए लिखा है
"सकषायत्वात् जीवः कर्मणो योग्यान पुद्गलानादत्ते स बन्धः '14 अर्थात् जीव सकषाय होने से कर्म योग्य पदगलों को ग्रहण करता है, यही बन्ध है।
बन्ध दो प्रकार का है— एक भाव बन्ध और दूसरा द्रव्य-बन्ध। जिन राग, द्वेष और 34 -
- तुलसी प्रज्ञा अंक 119
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