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________________ विशेषापेक्षया अनादिमान है अत: जैसे बीज-वृक्ष की सन्तति अग्नि से नष्ट हो जाती है-वैसे ही कार्मण शरीर भी ध्यान अग्नि से नष्ट हो जाता है इसलिए साधूक्त है कि किसी प्रकार से वे अनादि हैं और कथंचित् सादि हैं।' 2. मूर्त कर्म का अमूर्तिक आत्मा से बंध में अनेकान्त-जैन दर्शन में कर्म को पौद्गलिक माना है । मूर्त कर्मों का अमूर्त आत्मा से बंध कैसे होता है इस प्रश्न का समाधान जैनाचार्यों ने अनेकान्तात्मक शैली में दिया है। जैन तत्व व्यवस्था में संसारी आत्मा को आकाश की तरह सर्वथा अमूर्त नहीं माना गया है। उसे अनादि बन्धन बद्ध होने के कारण मूर्तिक भी माना गया है। बंध पर्याय में एकत्व होने के कारण आत्मा को मूर्तिक मानकर भी वह अपने ज्ञान आदि स्वभाव का परित्याग नहीं करता, इस अपेक्षा से उसे अमूर्तिक कहा गया है। इसी कारण अनादि बन्धन बद्धता होने से उसका मूर्त कर्मो के साथ बंध हो जाता है। जिस प्रकार घृत मूलतः दूध में उत्पन्न होता है, परन्तु एक बार घी बन जाने के बाद उसे पुनः दूध में परिणत करना असंभव है अथवा जिस प्रकार स्वर्ण नामक पदार्थ मूलत: पाषाण में पाया जाता है परन्तु एक बार स्वर्ण बन जाने पर उसे किट्टिमा के साथ मिला पाना असंभव है। उसी प्रकार जीव भी सदा ही मूलतः कर्म बद्ध (सशरीरी) उपलब्ध होता है, परन्तु एक बार कर्मों से सम्बन्ध छूट जाने पर पुन: इसका शरीर के साथ सम्बन्ध हो पाना असंभव है। जीव मूलत: अमूर्तिक या कर्म रहित नहीं है, बल्कि कर्मों से संयुक्त रहने के कारण वह अपने स्वभाव से च्युत उपलब्ध होता है। इस कारण आत्मा मूलतः अमूर्तिक न होकर कथंचित् मूर्तिक है। ऐसा स्वीकार कर लेने पर उसका मूर्त कर्मों के साथ बंध हो जाना, विरोध को प्राप्त नहीं होता। इतना अवश्य है कि एक बार मुक्त हो जाने पर वह सर्वथा अमूर्तिक हो जाता है, और तब कर्म के साथ उसके बंध होने का प्रश्न ही नहीं उत्पन्न होता है।' 3. भावकर्म और द्रव्यकर्म में कथंचित् भिन्नाभिन्नताआचार्य विद्यानन्दि ने कर्म के भेदों के सम्बन्ध में लिखा है कर्माणि द्विविधान्यत्र द्रव्यभाविकल्पतः। द्रव्यकर्माणि जीवस्य पुद्गलात्मान्यनेकधा॥ भावकर्माणि चैतन्य विवर्तात्मानि भान्ति नुः। क्रोधादीनि स्ववेद्यानि कर्थाञ्चचिदभेदतः॥० अर्थात् कर्म दो प्रकार के हैं- 1. द्रव्यकर्म, 2. भावकर्म । जीव के दो द्रव्य कर्म हैं, वे पौद्गलिक हैं और उनके अनेक भेद हैं तथा जो भाव कर्म हैं वे आत्मा के चैतन्यपरिणामात्मक हैं क्योंकि कथञ्चित् अभिन्न रूप से स्वसंवेद्य प्रतीत होते हैं और वे क्रोधादि रूप है। द्रव्य-कर्म के सम्बन्ध में आचार्य अकलंकदेव ने लिखा है- 'यथा भाजन विशेषे प्रक्षिप्तानां विविधरसबीजपुष्पफलानां मदिरा भावेन परिणामः तथा पुद्गलानामपिआत्मनि स्थितानां योगकषायवशात् कर्म भावेन परिणामो वेदितव्यः'।1 तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2003 . - 33 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524614
Book TitleTulsi Prajna 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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