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________________ संसारी जीव की क्रिया लिया गया है। भाव यह है कि संसारी जीव के प्रति समय परिस्पन्दात्मक जो भी क्रिया होती है वह कर्म कहलाती है। प्रवचनसार के टीकाकार अमृतचन्दसूरि ने लिखा है-'किया खल्वात्मना प्राप्यत्वात्कर्म, तन्निमित प्राप्त परिणामः पुद्गलोपि कर्म' अर्थात् आत्मा के द्वारा प्राप्य होने से क्रिया को कर्म कहते हैं। जैनदर्शन के अनुसार प्रत्येक प्राणी स्वतंत्र है। सबको समान रूप से विकास करने की स्वतंत्रता है परन्तु जीवन के कुछ प्रसंगों में किंचित् असफलता प्राप्त होने पर हम कर्म को दोष देने लगते हैं। "करम गति टाली नाहिं टलै", "विधि का विधान""भवितव्यता अमिट है, "भाग्यं फलति सर्वत्र' इत्यादि वाक्यों के माध्यम से अपने आप को निराश कर जीवन को दुःखद बनाते हैं। हमें कर्मवाद में एकान्तिक मान्यताओं को छोड़कर अनेकान्त के आलोक में विमर्श की अपेक्षा है अन्यथा अनेक विसंगतियां उत्पन्न हो जायेगीं। जैन कर्मवाद के कुछ प्रमुख तथ्यों पर अनेकान्त के सन्दर्भ में हम प्रकाश डाल रहे हैं। 1.कर्म का जीव से कथंचित अनादित्व और सादित्व-तत्वार्थ सूत्र में लिखा है, "अनादि सम्बन्धे च' अर्थात् ये दोनों तैजस और कार्मण शरीर अनादिकाल से जीव के साथ हैं। सूत्र में प्रयुक्त 'च' शब्द विकल्प अर्थ में है। आचार्य अकलङ्क जीव और कर्म के सम्बन्ध में लिखते हैं -बंध सन्तति की अपेक्षा अनादि सम्बन्ध है और विशेषतः बीज वृक्ष के समान सादि सम्बंध है। जैसे वृक्ष बीज से उत्पन्न होता है और बीज दूसरे वृक्ष से उत्पन्न होता है तथा यह वृक्ष दूसरे बीज से उत्पन्न हुआ था इस प्रकार बीज और वृक्ष का कार्य-कारण सम्बंध सामान्यापेक्षया अनादि है। इस बीज से यह वृक्ष हुआ और इस वृक्ष से यह बीज इस विशेष की अपेक्षा से सादि है अर्थात् सन्तति की दृष्टि से बीज वृक्ष अनादि होकर भी तद्बीज और तवृक्ष की अपेक्षा सादि है। एकान्त से अनादिमान् ही स्वीकार कर लेने पर निर्निमित्तक होने से नवीन शरीर के सम्बन्ध का अभाव हो जायेगा। जिनके सिद्धान्त में एकान्त से तैजस, कार्मण शरीर का अनादि सम्बंध है-उनके सिद्धान्त में पूर्व में ही आत्यन्तिकी शुद्धि को धारण करने वाले जीव के नूतन शरीर का सम्बन्ध ही नहीं हो सकेगा-क्यों कि शरीर के सम्बन्ध का कोई निमित्त ही नहीं है। यदि एकान्त से निर्निमित्तक आदि सम्बंध माना जायेगा तो मुक्तात्मा के अभाव का प्रसंग आयेगा-क्योंकि जैसे आदि शरीर अकस्मात् सम्बंध को प्राप्त होता है वैसे ही मुक्तात्मा के भी आकस्मिक शरीर सम्बंध होगा इसलिए मुक्तात्मा के अभाव का प्रसंग आयेगा। तथा एकान्त से सर्वथा तैजस कार्मण शरीर को अनादि मानेंगे तो भी अनिर्मोक्ष का प्रसंग आयेगा क्योंकि जो अनादि है-उसका आकाश के समान अन्त भी नहीं होगा, कार्यकारण के सम्बंध का अभाव होने से मोक्ष का अभाव हो जाता है। यदि कहो कि अनादि बीज वृक्ष की सन्तान का अग्नि से सम्बन्ध होने पर अन्त देखा जाता है उसी प्रकार तैजस कार्मण शरीर का भी अन्त हो जायेगा-तब तो एकान्त से अनादित्व का अभाव होगा। बीज वृक्ष - तुलसी प्रज्ञा अंक 119 32 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524614
Book TitleTulsi Prajna 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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