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________________ तरह की बेड़ियाँ पुरुष को साधारण रूप से जकड़ कर रखती हैं। इसी प्रकार चाहे शुभ कर्म हो या अशुभ कर्म वह साधारण रूप से जीव को संसार में रखता है।18 ___ आचार्य पूज्यपाद के अनुसार जो आत्मा को पवित्र करता है या जिससे आत्मा पवित्र होती है वह पुण्य है, जैसे सातावेदनीय आदि तथा जो आत्मा को शुभ से बचाता है वह पाप है, जैसे असातावेदनीय आदि। पुण्य दो प्रकार का है. --- एक जीव पुण्य, दूसरा अजीव पुण्य। जो जीव पुण्य-भाव अर्थात् शुभ-भाव से युक्त हो वह जीव पुण्य है । जो पुद्गल पुण्य भाव से युक्त हो वह अजीव पुण्य है। पुण्य का पर्यायवाची शुभ भी है। इसलिए पुण्य भाव को शुभ भाव भी कहते हैं।20 जीव तीन प्रकार के हैं- 1. बहिरात्मा, 2. अन्तरात्मा, 3. परमात्मा। मिथ्यादृष्टि बहिरात्मा है। छद्मस्थ सम्यग्दृष्टि अन्तरात्मा है। अरहन्त और सिद्ध परमात्मा हैं। इनमें से बहिरात्मा पाप-जीव है। अन्तरात्मा पुण्य-जीव है। परमात्मा पुण्य-पाप से रहित हैं। _ 'मोक्ष पाहुड' में लिखा है-व्रत और तप रूप शुभ भावों से (पुण्य भावों से) स्वर्ग प्राप्त होना उत्तम है तथा अव्रत और अतप (अशुभ भाव, पाप भाव) से नरक में दुःख प्राप्त होना ठीक नहीं है, वैसे ही व्रत (शुभ) और अव्रत (अशुभ) पालने वालों में महान् अन्तर है।" __पुण्य और पाप – दोनों ही भाव विभाव हैं, आत्मा के चरित्र गुण की विकारी पर्यायें हैं, अतः विकार-विभाव की अपेक्षा दोनों में साम्य है। जैसे चाहे लोहे की बेड़ी हो या सोने की बेड़ी पर है तो बेड़ी ही। इसलिए दोनों सदृश हैं। इसी तरह पुण्य तथा पाप रूप द्रव्य कर्म भी आत्मा से परत्व की अपेक्षा समान हैं। कर्म तो परद्रव्य ही है, चाहे पाप कर्म हो या पुण्य कर्म, पर हैं तो कार्मण वर्गणा की पर्याय ही। इस तरह पुण्य-पाप कथंचित् सदृश हैं, क्योंकि दोनों ही संसार के कारण हैं परन्तु इनके फल में भिन्नता देखी जाती है अतः कथंचित् भिन्नता है। आचार्य अकलंक के अनुसार पुण्य-पाप को सर्वथा एक रूप कहना उपयुक्त नहीं है क्योंकि सोने या लोहे की बेड़ी की तरह दोनों ही आत्मा की परतंत्रता के कारण हैं तथापि इष्ट फल और अनिष्ट फल में निमित्त से पुण्य और पाप में भेद है। जो इष्ट गति, जाति, शरीर, इन्द्रियों के विषय आदि का निवर्त्तक कारण है वह पुण्य है तथा अनिष्ट गति, जाति, शरीर इन्द्रियों के विषय आदि पाप हैं। इनमें शुभ योग पुण्यास्रव का कारण है और अशुभ योग पाप का आस्रव है। आचार्य अमितगति ने लिखा है जो मूढ़ पुण्य-पाप दोनों के विशेष भेद को अथवा दोनों में अविशेष-अभेद को नहीं जानता वह चारित्र से परिभ्रष्ट है और संसार का परिवर्द्धक है, भव-भ्रमण करने वाला दीर्घ संसारी है।23 6 कर्मसिद्धान्त में पंच समवाय की मान्यता जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त के अन्तर्गत काल, स्वभाव, नियति, कर्म और पुरुषार्थइन पांच समवाय को स्वीकार किया गया है। सामान्यतः नियम यह है कि प्रत्येक कार्य की 36 । - तुलसी प्रज्ञा अंक 119 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524614
Book TitleTulsi Prajna 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size6 MB
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